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________________ द्वितीय अधिकार [ ५७ द्वपशीतिलक्ष्यसंख्यानि, विलान्युष्णानि केवलम् । पञ्चविंशसहस्राधिकानि दुःखाकराणि च ।।१२०॥ लक्षकाणि भवेयः सह-त्राणि पञ्चसप्ततिः । विश्वदुःख निधानामि, यतिशयविलाधि ॥१२३।। अर्थ:--रत्नप्रभा प्रादि चार पृध्वियों में और पञ्चम पृथ्वी के भाग पर्यन्त स्थित बिलों में अत्यन्त उष्ण वेदना है, तथा पञ्चम पृथ्वी के अवशेष भाम से सप्तम पृथ्वी पर्यन्त स्थित बिलों में सम्पूर्ण मङ्गों को दाह करने वाली अत्यन्त शीत वेदना है । इस प्रकार ३००००००+२५००००० +१५०००००+१००००००+ (202422५३) २२५००० - ८२२५००० (ब्यासी लाख पच्चीसहजार) विलों में भयङ्कर दुःख उत्पन्न करने वाली मात्र उष्ण वेदना है और (३00829x!) =७५०० + ESELE+५= १७५००० (एक लाख पचहत्तर हजार ) विलों में सम्पूर्ण दुःखों के स्थान स्वरूप शीत वेदना है ।।११८-१२१।।।। नरक वेदना का वेदन करने वाले भावी तीर्थकर जीवों को विशेष व्यवस्था का वर्णन करते हैं: प्रागामितीयंकणा तारकासातभागिनाम् । शेषोतरित षण्मासि' चापि दु:कर्मभोगिनाम् ॥१२२॥ पवा तदासुरा एत्य नरकनयभूमिषु । निधारयन्ति तद् भक्त्योपसर्गाश्च कवर्थनाम् ॥१२३॥ अर्थ:-जो भविष्य में तोर्थर होने वाले हैं, नरक जन्य असाता और दुःखों का वेदन कर रहे हैं ऐसे रत्नप्रभा से तृतीय पृथ्वी पर्यन्त स्थित तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध व सत्त्व वाले नारकी जीवों की प्रायु में जब ६ माह अवशेष रहते हैं तब असुर कुमार जाति के देव (भावी तीर्थंकर की) भक्ति से प्रेरित होकर उनके उपसर्ग एवं पीड़ानों का निवारण कर देते हैं ।।१२२-१२३|| रत्नत्रय धर्म के प्राचरण करने की प्रेरणा :-- इति बहुविधरूपाऽ-धःस्थ लोकं विदित्वा, जिनवरगणिनोक्त विश्वदुःखंकवाद्धिम् । हगवगमचरित्र-स्तविहान्य शिवाप्स्य, चरत कुन रकघ्नं दुःखभोताः सुधर्मम् ।।१२४॥ अर्थ:--इस प्रकार जिनेन्द्र एवं गणधर देवों द्वारा नाना प्रकार से कथित, सम्पूर्ण दुःखों का समुद्र ऐसे अधोलोक का स्वरूप जानकर सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के द्वारा उन १ षण्मासायुषि प्र. ज. न.
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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