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________________ सप्तमोऽधिकारः [ २१३ वेदिकातोरणद्वारोपेते स्वच्छाम्बुभिभुते । द्वे कुण्डे स्तः पृथग् रक्तारक्तोदोत्पत्तिकारणे ॥१८॥ इत्युक्तविस्तृतायः सर्वाणि कुण्डानि धोधनः । सहशानि चतुःषष्टिर्नेयानि शाश्वतानि च ॥१२९।। नीलाद्रिनिषधाधास्थभूमिष्वति शुभान्यपि । चतुःषष्ठिनदीनां स्थोत्पत्तिभूतानि नान्यथा ॥१३०॥ __ अर्थ :-नीलपर्णत के प्रधोभाग में भूमि पर साढ़े बासठ योजन चौड़े, दशा योजन गहरे, वेदिका और तोरणों से संकलित तथा स्वच्छ जल से भरे हुये रक्ता-रक्तोदा महानदियों की उत्पत्ति के कारण भूत पृथक् पृथक् दो कुण्ड हैं ॥१२७-१२८।। इस प्रकार विद्वानों के द्वारा समस्त चौंसठ ( ६४ ) ही शाश्वत कुण्ड पूर्वोक्त कुण्डों के विस्तार आदि के सदृश ही कहे गये हैं, ऐसा जानना चाहिये । नील और निषध कुलाचलों के अधोमान में प्रथ्वी पर निदेवस्थान मिल्धु र कागौट रक्तोदा इन) चौंसठ नदियों के (पान और) उत्पत्ति के कारणभूत अत्यन्त शुभ चौसठ कुण्ड हैं, इसमें संशय नहीं है ।।१२६-१३०।। अब विवेहस्थ रक्ता रक्तोदा का स्वरूप कहते हैं :-- कुण्डयोदक्षिणद्वाराभ्यां निर्गत्योम्मिसंकुले । कोशाग्रयोजनः षड्भिरादौ विस्तारसंयुते ॥१३१।। अर्धक्रोशावगाहे द्वे रक्ता रक्तोदसंज्ञिके । नद्यौगुहास्थदेहल्या अधोभागे विनिर्गते ॥१३२।। प्रद्र गुहान्तरे शेयो विस्तारः खण्डवजितः । अष्टयोजनसंख्यो हिनद्योः सर्वत्र सन्निभः ।।१३३॥ ततोऽभ्येत्य क्रमान्नद्यो सार्धद्विषष्टियोजनः । विस्ताराद्यवगाहे द्वे पञ्चक्रोशमनोहरे ॥१३४।। सीतायास्तोरणद्वाराभ्यां प्रविष्टे क्षयोज्झिते । द्विपाश्वंस्थमहादेदीवनतोरणभूषिते ॥१३॥ चतुर्दशसहस्राणि वनवेद्याद्यलंकृताः । प्रत्येकमनपोः सन्ति परिवाराख्यनिम्नगाः ॥१३६।। अर्थ:-कल्लोलावलियों से व्यास, सवा छह योजन चौड़ी और अर्ध कोस गहरी रक्ता-रक्तोदा नाम' की दोनों नदियाँ निषध कुलाचल के मूल में स्थित कुण्डों के दक्षिण द्वारों से निकलकर विजया
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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