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________________ ६१० ] सिद्धान्तसार क्षेपक अस्मिस सिसान्तसारे त्रिभुवनकथके शानगूढार्थ पूर्ण । यत् किश्चित् सन्धिमात्राक्षरपवरहितं प्रोदितं स्वल्पबुद्धधा । प्रज्ञानान्च प्रमावादशुभविधिवशावागमे वा विरुद्धम् । तत् सर्वं शारदेश्मा विशदमुनिगणः प्रार्थिता मे क्षमस्व ॥१०४॥ श्रुतसकलसुवेत्तारो हिता मध्य पुंसाम निहितनिखिलदोषालोमगर्वादि दूराः । विशवनिपुणबुद्धया सूरयः शोधयन्तु श्रुतमिदमिहचान्पज्ञानिना सूरिणोक्तम् ।।१०५॥ अर्थ:-यह सिद्धान्तसार दीपक नाम का उत्कृष्ट ग्रन्थ जिनेन्द्र के मुख से उद्भुत है, स्वर्ग, नरक आदि के भेद से अनेक प्रकार के समस्त त्रैलोक्य को उद्योत करने में दीपक के समान है । त्रैलोक्य सार प्रादि अनेक उत्कृष्ट ग्रन्थों का प्राडोलन कर भक्ति से मुझ सकलकोति मुनि द्वारा रचा गया है । अनेक गुण समूहों से यह ग्रन्थ सदा समृद्धिमान हो !॥१.२॥ मैंने यह ग्रन्थ ख्याति-पूजा-लाभ की इच्छा से अथवा कवित्व प्रादि के अभिमान से नहीं लिखा, किन्तु यह ग्रन्थ प्रात्म विशुद्धि के लिए, स्व-पर हित के लिए एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए परमार्थ बुद्धि से लिखा है ।।१.३1। तीन लोक के कथन में और ज्ञान के गूढ़ अर्थों से परिपूर्ण इस सिद्धान्तसार दीपक महाग्रन्थ में बुद्धि की स्वल्पता से, प्रज्ञान से, प्रमाद से अथवा प्रशुभ कर्म के उदय से यदि किंचित् भी अक्षर, मात्रा, सन्धि एवं पद आदि को हीनता हो अथवा पागम के विरुद्ध कुछ लिखा गया हो तो मैं प्रार्थना करता हूँ कि जिनवाणी माता और विशिष्ट ज्ञानी मुनिजन मुझे क्षमा प्रदान करें ॥१०४॥ मुझ अल्प बुद्धि के द्वारा लिखे गये इस शास्त्र का सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता, भव्य जीवों के हितकारो, समस्त दोषों से रहित लोभ एवं गर्व आदि से दूर रहने वाले तथा निर्मल ( समीचीन ) एवं निपुण बुद्धि से युक्त आचार्य शोधन करें ॥१०५।। ग्रन्थ के प्रति प्राशीवचनः-- सिद्धान्तसारार्थनिरूपणाछी सिद्धान्तसाराथं भृतो हि सार्थः । सिद्धान्तसारादिकदोपकोऽयं प्रन्यो धरित्र्यां जयत्तात् स्वसंघः ॥१०॥ अर्थ:-जिनागम के सिद्धान्त के सारभूत अर्थ का निरूपण करने वाला, सिद्धान्त के सारभूत ::
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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