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________________ चतुर्दशोऽधिकार [ ४८५ अष्टाविंशतिलक्षद्वादशसहस्र नवशतपञ्चाशत्कोटीकोटथः । पुष्कराद्वीपे चन्द्राः द्वासप्ततिः । भानवः द्वासप्ततिः 1 ग्रहाः षट्सहस्र त्रिशतषत्रिंशत् । नक्षत्राणि षोडशाग्रविशतिशतानि । ताराः श्रष्टचत्वारिंशल्लक्ष. द्वाविंशतिसहस्र द्विशतकोटी कोटधः सन्ति । अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों के ऊपर निवास करने वाले समस्त ज्योतिष्क देवों का प्रमाण भिन्न भिन्न दर्शाते हैं नोट:- उपर्युक्त गद्य का अर्थ निम्नांकित तालिका में अवधारित किया गया है । द्वीप एवं समुद्रों के नाम क्रम १ २ ३ ४ ५ जम्बूद्वीप - लवण समुद्र धातकीखण्डद्वीप कालोबधि समुद्र पुष्करार्थं द्वीप योग चन्द्र सूर्य २ २ ४ १२ ४ ४२ १२ १०५६ ३६६६ ७२ ७२ ६३३६ ग्रह १७६ ४२ ३५२ १३२ १३२ ११६१६ नक्षत्र ५६ ११२ ३३६ ११७६ २०१६ ३६६६ तारागण १३३९५० कोड़ाकोड़ी २६७६०० ६०३७०० २८१२६५० ४८२२२०० " " 25 विधोः शेषपरिवारसुराः सामान्यकादयः । अष्टभेदा हि पूर्वोक्ताः प्रतीन्द्रप्रमुखाः सदा ॥५६॥ त्रास्त्रिसुरैर्लोकपालविना भवन्ति च । सार्धद्वीप पङ्क्त्या ज्योतिर्देवा भ्रमन्त्यमी ॥६०॥ मानुषोत्तरतो बाह्यं तिष्ठन्ति ज्योतिषां गणाः । ये संख्यवजितास्तेषामचलत्वं भवेत्सदा ॥ ६१॥ #7 " 11 " ८८४०७०० कोड़ाकोड़ो श्रव चन्द्रमा के अवशेष परिवार देवों के नाम, तृलोक में ज्योतिर्देवों का गमन क्रम और मानुषोत्तर के आगे ज्योतिदेवों को प्रवस्थिति कहते हैं अर्थ:-- पूर्वोक्त दश भेदों में से त्रास्त्रिश और लोकपाल देवों के विना, प्रतीन्द्र है प्रमुख जिनमें ऐसे सामानिक आदि भाठ भेद वाले देव चन्द्र के अवशेष परिवार में होते हैं । अर्थात् ज्योतिष्क देवों
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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