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________________ करते हैं: पंचदशोऽधिकार। [ ५६९ लौकान्तिक वेषों के विशेष स्वरूप का एवं उनकी प्रायु का प्रतिपावन Cam नाविका न च होनास्ते स्वात्मध्यानपरायणाः 1 विरक्ताः कामभोगेषु निसब्रह्मचारिणः ॥२८७॥ चतुर्दशमहापूर्वसमुद्रपारगा विदः । सम्बोधनविधातारो दीक्षा कल्याणकेऽहं ताम् ॥ २८८ ॥ देवर्षयः पः स्तुता वन्द्याः पूज्याश्चेन्द्रादिनाकिभिः । एकावतारिणोऽत्यन्त स्वल्पमोहाः शुभाशयाः ॥ २८६॥ विरागा जिनदीक्षादानेऽति प्रमोदकारिणः । सन्ति लौकान्तिकामराः ॥ २६० ॥ प्रत्यन्त स्त्रीविरक्ता ये तपस्यन्ति विरागिणः । मुनयः प्राग्भवे ते स्युल्लौकान्तिकाः स्त्रियोऽतिगाः ॥ २६२ ॥ सारस्वतादि सप्तानां देवर्षीणां परा स्थितिः । प्रखण्डाः सागरा श्रष्टौ संसाराब्ध्यन्तगामिनाम् ॥२६२॥ प्रायुश्चारिष्टदेवानां नवंय सागरोपमाः । पुनरेषां वे किश्चित् सुखबोधाय वर्णनम् ॥ २६३ ॥ अर्थः- ये सभी लौकान्तिक देव परस्पर में ऋद्धि आदि से होनाधिक नहीं होते, ये भ्रात्मध्यान परायण, काम एवं भोगों से विरक्त तथा निसर्गतः ब्रह्मचारी होते हैं ॥२८७॥ चतुर्दशमहापूर्व रूपी समुद्र के पारगामी, विद्वान एवं दीक्षा कल्याणक के समय ग्रहन्तों को सम्बोधन करने वाले होते हैं ||२८|| इन्द्रादि समस्त देवों द्वारा पूजनोय, वन्दनीय एवं स्तुत्य ये सर्व देवधि संज्ञा वाले देव एकभावतारी, अत्यन्त प्रल्पमोह युक्त एवं शुभ भावनाओं से युक्त होते हैं ॥ २६६॥ राग से रहित जिनेन्द्र भगवान की दीक्षा के समय श्रत्यन्त प्रमोद को धारण करने वाले ये लौकान्तिक देव ब्रह्मकल्प के अन्त में निवास करते हैं ||२०|| पूर्वभव में जो मुनि स्त्री जन्य राग से अत्यन्त विरक्त होते हैं, तथा राग रहित अत्यन्त उग्र तप करते हैं, वे स्वर्ग में श्राकर स्त्रियों के राग से रहित लोकान्तिक देव होते हैं ||२१|| संसार रूपी समुद्र के अन्त को प्राप्त होने वाले सारस्वतादि साल देवर्षियों की उत्कृष्ट श्रखण्ड आयु प्राठ सागर प्रमाण होती है ।। २६२ ॥ श्ररिष्ट नामक लौकान्तिक देवों की उत्कृष्ट श्रायु
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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