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________________ বয়ংঘিকা; [ ५६१ अवशेष अर्थ:-नव अनुदिशों में स्थित प्रहमिन्द्रों की उत्कृष्ट प्रायू ३२ सागर प्रमाण एवं पांच अनुत्तरों में स्थित प्रहमिन्द्रों की उत्कृष्ट प्रायु ३३ सागर प्रमाण होती है। - सौधर्मशान कल्प के प्रथम पटल में स्थित देवों की जघन्याय एक पल्योपम प्रमाण होती है। इसके आगे नोचे नीचे के पटलों की जो उत्कृष्ट मायु होती है, वही ऊर्ध्व ऊर्ध्व पटलों में स्थित देवों को जभन्यायु जानना चाहिए। अब देवों में प्रायु को हानि एवं वृद्धि के कारण तथा उसके प्रमाण का दिग्दर्शन कराते हैं: ससम्यक्त्वस्य देवस्य सागराधं हि वर्धते । प्रायुवित्सहस्रारं मिथ्यात्वारिविघातनात् ॥२३२॥ मिथ्यात्वागत देवस्थ सम्बकत्वरसाशात् । होयते सागरार्धायुरिति स्थितिश्च नाकिनाम् ।।२३३॥ ज्योतिर्भावनभौमेषु सम्यक्त्वाप्राप्तितोऽणिनः । किञ्चिद् व्रततपः पुण्यादुत्पद्यन्ते भवाध्वगाः ॥२३॥ सम्यक्त्वप्राप्तिधर्मेण स्वायुर्भवनवासिनाम् । सागरा) प्रवर्धत मिथ्यात्वशघातनात् ॥२३५।। ज्योतिष्कष्यन्तराणां चायुः पल्या प्रवर्धते । मिथ्यात्वारिविनाशेन सम्यक्त्वमणिलाभतः ॥२३६॥ सर्वत्र विश्वदेवानां मिथ्यात्वषिषोभनात् । सम्यक्स्वामृत पानेन स्वायुः सम्वर्धतेतराम् ॥३३७॥ पल्यैकस्याप्यसंख्यातभागप्रममिति स्फुटम् । स्थिति वदन्ति देवानामागमे स्थितिवेदिनः ।।२३८।। प्रथ:-सौधर्म स्वर्ग से सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त मिथ्यात्व रूपी शत्रु का नाश करने वाले सम्यग्दृष्टि देवों की प्रायु में प्रधं सागर की वृद्धि होती है ।।२३२॥ तथा सम्यक्त्व रूपी रत्न का नाश होने से मिथ्यात्व को प्राप्त हुए देवों की आयु में से यह प्रधं सागर हीन हो जाती है ॥२३३। जिन मनुष्यों को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई, वे किञ्चित् व्रत एवं तप आदि से उपाजित पुण्योदय से ज्योतिषी, भवनवासी एवं यन्तर वासी देवों में उत्पन्न होते हैं, और पुनः संसाररूपी मार्ग में भ्रमण - -
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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