SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३० ] सिद्धान्तसार दीपक श्रस्याम्बुधेश्च बाह्याभ्यन्तर वैदिकयोर्द्वयोः । योजनानि द्विचत्वारिंशत्सहस्रप्रमाण्यपि ॥ १५८ ॥ तरमुत्सृज्य सन्ध्येते चतु दिवष्टपर्वताः । star: कौस्तभासोऽन्य एतौ पूर्वदिशि स्थितौ ॥५६ ।। दक्षिणे स्त इमौ लौ हा काख्योदकप्रभो । ह्य श्री शंखमहाशंखी दिग्भागे पश्चिमे स्थितौ ॥ ६० ॥ गदाद्रिगदवासाक्षो भवन्तश्चोत्तरेऽम्बुधौ । इत्यमी पर्वता अष्टौ सहस्रयोजनोन्नताः ॥ ६१॥ सहस्रयोजनानि विस्तीर्णाः शाश्वताः शुभाः । कलशार्धसमाः श्वेतावनवेद्यादिभूषिताः ॥ ६२ ॥ तावन्ति योजनान्यन्धेर्मुक्त्वा वेद्यो द्वयोस्तदम् 1. चतुविदिक्षु सन्त्यन्ये शैला श्रष्टौ मनोहराः || ६३ ॥ तथा तेषां महाद्रीणामष्टस्वन्तरदिक्षु च । भवन्ति वनवेद्याद्यैर्युताः षोडशपर्वताः ||६४ || गिरयो मिलिता एते निखिलाः कौस्तभादयः । द्वात्रिंशत्संख्यका ज्ञेया लवणाब्धौ मनोहराः ||६५ ॥ अर्थः- लबा समुद्र की बाह्याभ्यन्तर दोनों वेदियों के तटों से ब्यालीस हजार ( ४२००० ) योजन ग्रागे समुद्र में जाकर अर्थात् तट को छोड़ कर पूर्वादि चारों दिशाओं में पाठ पर्वत हैं, इनमें पूर्व दिशा में स्थित पर्वतों के नाम कौस्तुभ और कौस्तुभास हैं। दक्षिण दिशा में उदक एवं उदकप्रभ, पश्चिम में शंख और महाशंख तथा उत्तर दिशा में गद एवं गदवास नाम के पर्वत हैं। ये आठों पर्वत एक हजार योजन ऊंचे शिखर पर एक हजार योजन चौड़े, शाश्वत अत्यन्त मनोहर, अर्धकलश के आकार सहा, श्वेत वर्ग को धारण करने वाले और वन एवं वेदियों यादि से विभूषित है ।। ५८-६२ ।। दोनों वेदियों के तटों से समुद्र को व्यालीस हजार ( ४२००० ) योजन छोड़कर चारों विदिशात्रों में अत्यन्त मनोहर ग्राठ अन्य पर्वत हैं, तथा इन दिशा-विदिशा सम्बन्धी पाठ युगल पर्वत के आठ श्रन्तरालों में वन वेदी आदि से युक्त सोलह पर्वत हैं। इन स्तभ यदि समस्त पर्वतों का योग करने पर लवण समुद्र में मन को हरण करने वाले बसीस पवंत जानना चाहिये ||६३-६५।। नोट :- त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों में इन बत्तीस पर्वतों का अवस्थान दिशाओं-विदिशाओं गत पातालों के दोनों पार्श्व भागों में कहा गया है।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy