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________________ दशमोऽधिकार: [ ३६६ पुरग्रामादिसर्वषु सर्वत्र च वनारिषु । बोप्रा जिनालयास्तुङ्गा दृश्यन्ते जिनमूर्तयः ॥२६३।। हेमरत्नमयाभव्यैः पूजिता वन्दिताः स्तुताः । न जातु नीचदेवानां गृहा वा मूर्तयोऽशुभाः ॥२६४॥ शाश्वतो मुक्तिमार्गोऽत्र वर्तते योगिनां सदा । स्वर्गो गृहाङ्गणोऽत्रस्थपुण्यभाजां सुखावहः ।।२६॥ प्रजा वर्णन योपेता जिनधर्मरताः शुभाः । श्रतशोलतपोदृष्टिभूषिता न द्विजाः क्वचित् ॥२६६।। मिथ्यात्वपंचकं मात्र स्वप्नेऽपि जातु दृश्यते । द्रव्यभूतं न तद्वक्ता न वान्यच्च मतान्तरम् ।।२६७।। किन्त्वेको जिनधर्मोऽत्र विलोक्य ते गृहे गृहे । पुण्यभाजां तपोदानव्रतपूजोत्सवादिभिः ॥२६८॥ इति प्रवरदेशेषु लभन्ते जन्मसत्कुले । प्राज्जितशुभा भव्याः सद्गत्याप्त्ये न चेतराः ।।२६६॥ अर्थ.–अढ़ाई द्वीपस्थ विदेहों के एक सौ साठ आर्य खण्ड हैं, उन आर्य खण्डों के एक सौ साट ( १६० ) देशों में जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित श्रावक धर्म और मुनि धर्म के भेद से दो प्रकार के धर्म का एक सदृश प्रवर्तन निरन्तर होता रहता है। अहिंसा लक्षण से लक्षित और स्वर्ग-मुक्ति को देने वाला यह महान् धर्म हानि-वृद्धि से रहित है । वहाँ पर जिसमें जोवों का घात होता है, ऐसा बेद आदि के द्वारा कहा हुआ हिंसामय धर्म नहीं है ।।२५६-२६वहाँ पर धर्म प्रवर्तन के लिये मनुष्यों, देवों और संघों से वन्दनीय एवं पूजनीय केलि भगवन्त, अरहन्त प्रभु, गणधर देव, प्राचार्य परमेष्ठी, उपाध्यायदेव, साधु परमेष्ठो, स्थविर (वृद्धाचार्य अर्थात् तपोभार से युक्त) मुनिराज, प्रवर्तक मुनिराज और धर्मोपदेश रूपी अमृत का पान कराने वाले धर्मोपदेश दाता मुनिराज निरन्तर विहार करते हैं । वहाँ कुलिङ्गी साधु नहीं हैं ।।२६१-२६२॥ बहाँ पर नगरों में, ग्रामों में. वनों में तया और भी अन्य सभी स्थानों में अत्यन्त देदीप्यमान और उत्त ङ्ग जिनालय ही दिखाई देते हैं, जिनमें स्थित स्वर्ण और रत्नमय जिनप्रतिमाएं भव्य जीवों के द्वारा निरन्तर पूजित, वन्दित एवं स्तुत होती हैं। अर्थात् भव्यजीव उन प्रतिमाओं को निरन्तर पूजा करते हैं, दर्शन करके वन्दना करते हैं और अनेक प्रकार की स्तुति करते हैं । वहाँ पर कभी भी नीच देवों के मन्दिर और अशुभ प्रतिमाएं दिखाई नहीं देती ।।२६३२६४॥ यहाँ पर योगियों का अनाग्रनिधन निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग निरन्तर प्रवर्तित रहता है । यहाँ स्थित पुण्यशाली जीवों को सुख देने वाला यह क्षेत्र स्वमं के प्रांगन सदृश है ।।२६५|| तीन वर्गों से युक्त एवं
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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