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सप्तमोऽधिकारः
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अब पूर्व-अपर भद्रशालयनों की स्थिति, भद्रशालवनों को वेदियों से गजवन्तों का अन्तर एवं उत्तम भोगभूमियों को अवस्थिति का वर्णन करते हैं:
मूनि गजदन्तानामुभयोः पार्थयोर्भुवि । वेदिकातोरणैर्युक्त रम्यं च शाश्वतं वनम् ॥२३॥ स्यात् पूर्वभत्रशालाख्यापरामद्रादिशालयोः । अन्तरं वेदिकायाश्च गजवन्तमहीभृताम् ।।२४।। शतपच्चप्रमाणानि योजनानि पृथक् पृथक् । निषधस्योत्तरे भागे गजदन्तहयावृतम ॥२५॥ यच्चापाकारसत्क्षेत्रमुत्कृष्टभोगभूतलम् । तद्देवकुरुनाम स्याद् विश्वकल्पद्रुमंश्चितम् ॥२६॥ नीलस्य दक्षिणे पावें गजदन्तद्विवेष्टितम् ।
तादृशं भोगभूभागमन्योत्तर कुरूक्तिकम् ॥२७॥ अर्थ:-गजदन्तों के दोनों पार्श्वभागों की उपरिम भूमि पर वेदिका और तोरणों से संयुक्त पूर्वभद्रशाल एवं पश्चिम भद्रशाल नाम के रमणोक और गाश्वत वन हैं। इन पूर्व भद्रशाल और पश्चिम भद्रशाल वनों की (चारों) बेदिकानों से (चारों) गजदन्तों के ( अन्तरंग भाग का ) पृयक पृथक् अंतर पाँच सौ, पांच सौ योजन प्रमाण है । ( क्योंकि गजदन्तों का व्यास ५०० योजन है ) निषध पर्वत की उत्तर दिशा में विद्युत्प्रभ और महासौमनस इन दो गजदन्तों रो वेष्टित धनुषाकार शुभ क्षेत्र है वही समस्त प्रकार के कल्पवृक्षों से युक्त देवकुरु नाम को उत्कृष्ट भोगभूमि है। इसी प्रकार नोलपर्वत को दक्षिण दिशा में गन्धमादन और माल्यवान् इन दो गजदन्तों से बेष्टित उत्तर कुस्लाम की उत्कृष्ट भोगभूमि है ।।२३-२७॥ अब उत्कृष्ट भोगभूमियों के धनुःपृष्ठ का प्रमाण कहते हैं:--
य एकत्रोकृतायामोऽनयोद्विगजदन्तयोः ।
तद्धि देवकुरोश्चोत्तरकुरोधनुरुच्यते ॥२८॥ अर्थः - विद्य त्प्रभ और सौमनस गजवन्तों की लम्बाई जोड़ने से देवकुरु के और गन्धमादन एवं माल्यवान् गजदन्तों को लम्बाई जोड़ देने से उत्तर कुरु के धनु:पृष्ट का प्रमाण प्राप्त होता है ।।२।।
देवकुरूतरकुरुभोगभूम्योः प्रत्येकं धनुःपृष्ठ षष्टिसहस्र चतुःशताष्टादशयो जनानि योजनकोनविशतिभागानां द्वादशभागाः ।