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________________ सप्तमोऽधिकारः [ २०१ अर्थः-सुदर्शन मेरु को नेऋत्य दिशा में, सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर, निषधकुलाचल के समीप देवकुरुक्षेत्र में जम्बूवृक्ष के सदृश उत्सेच, पायाम एवं विस्तार से युक्त तथा समस्त (१४०१२०) परिवार वृक्षों से समन्वित एक प्रति शोभा सम्पन्न शाल्मली वृक्ष है । इसकी दक्षिण शाखा पर वेणुधारी ग्रादि देवों द्वारा पूज्य और अनेक जिनबिम्बों से संकुलित रत्नमय जिनालय है । शेष तीन शाखामों पर स्थित प्रासादों में अनेक परिवार देवों के साथ गरुडकुलोत्पन्न वेणु नाम का महान् देव निवास करता है ।।५१-५४।। प्रब यमकगिरि का स्वरूप कहते हैं:---- नीला दक्षिणे गत्वा सहस्रयोजनानि च । भवेतां यमकाद्रीद्वौ सीतायाः पार्ययोर्द्वयोः ।।५।। सहस्रयोजनोच्यो यस्कूटकाञ्चनाह्वयौ । सहस्रयोजनव्यासौ मूले मध्ये च योजनः ॥५६॥ साधंसप्तशतैविस्तृतौ मूनिशतपञ्चकः । परस्परान्तरौ वीप्राङ्गो पञ्चशतयोजनः ॥५७।। मुले भूमितले मूनि वनवेदीयुतौ शुभौ । जिनालयान्यसौधोच्चतोरणाद्यग्रभूषितौ ॥५८।। तयोश्च शिखरे रत्नप्रासादेषन्नतेषु च । साद्विषष्टिसंख्याने योजनमणिशालिषु ॥५६॥ योजनैरेकगध्यूत्यकत्रिशत्प्रमाणकैः। च्यासायामेषु देवौ यमदेवकाञ्चनाभिधौ ॥६॥ घप्ततः एरिवारादधौ पल्योपमैकजीवितौ । तथान्येऽचलयोनि सन्ति प्रासादपङ्क्तयः ॥६१॥ सप्तानीकसुसामान्यफाङ्गरक्षसुधाभुजाम् । चतुरग्रसुदेवीनां परिषत्रिसुधाशिनाम् ।।६२।। अर्थ:-नील कुलाचल से दक्षिण में एक हजार योजन आगे जाकर सीता नदी के दोनों तटों पर यमकलाट और काञ्चनगिरि नाम के दोयमकगिरि पर्वत हैं । ये दोनों यमगिरि एक हजारयोजन ऊँचे, मूल में एक हजार योजन चौड़े, मध्य में साढ़े सात सौ योजन और शिखर तल पर पांच सौ योजन चौड़े हैं। इन दोनों देदीप्यमान शैतों का परस्पर का अन्तर भी पांच सौ योजन प्रमाण है ॥५५-५७॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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