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________________ ३०० ] सिद्धान्तसार दीपक ततः पुरुषसिंहाख्यः पुण्डरीक इमेऽशुभात् । पंचार्धचक्रिरणो जग्मुः षष्ठोपृथ्वी वतातिगाः ।।२३२॥ दत्तोऽगात पंचमी बान्ते चतुर्थों लक्ष्मणः क्षितिम् । तृतीयां पृथिवीं कृष्णः स्वकर्मयशगो विधिः ।।२३३॥ अर्थ:-महापाप का भार से प्रथम नारायण त्रिषष्टि सम्म नरक, द्विपृष्ट, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह और पुण्डरीक ये पांच नारायण अर्थात् प्रचंचक्रवर्ती अशुभ योग एवं व्रतरहित होने से छठे नरक, दत्तनारायण पाँचवें नरक, लक्ष्मण चौथे नरक और कृष्ण नारायाण अपने स्वकर्म के वशीभूत होते हुए तीसरे नरक गये हैं ।।२३१-२३३॥ अब प्रतियासुदेवों के नाम, उत्सेध, वर्ण एवं स्वभाव आदि का कथन करते हैं : अश्वनीवस्त्रिखण्डेशस्तारको मेरकाह्वयः । निशुम्भा केटमारिस्तु मधुसूदननामकः ॥२३४॥ वलिहन्ता ततो रावणो जरासिन्धसंज्ञकः । वासुदेवद्विषोऽमी प्रतिवासुदेवभूभृतः ।।२३५॥ बलेशाङ्गसमोत्तुङ्गाः श्यामकायाः सुरूपिणः । रौद्रध्यानाः प्रकृत्या स्युः समदा उद्धताशयाः ॥२३६।। अश्वनीवादयोऽत्राष्टौ तेषां मध्ये वियच्चराः। सन्त्यर्ध चक्रिणोऽन्त्यः स्याज्जरासंघो महीचरः ।।२३७।। अर्थ:-अश्वग्रीव, तारक मेरक, निशुम्भ. कंदभ, मधुसूदन, बलिहन्ता, रावण और जरासिन्ध नाम के ये नौ अर्धचक्री प्रतिवासुदेव हैं। ये प्रतिवासुदेव राजा वासुदेवों के शत्रु होते हैं । इनके शरीर की कान्ति श्याम वर्ण एवं उत्सेध बलदेवों के उत्सेध सदृश होता है । ये स्वभाव से रोद्र परिणामी, गर्व युक्त प्रौर उक्त प्रकृति के होते हैं -२३४-२३६॥ इनमें से अश्वग्रीव प्रादि पाठ प्रतिनारायण विद्याधर हैं और अन्तिम अर्धचत्री जरासिन्ध भूमिगोचरी हैं ।।२३७॥ अब प्रतिवासुदेवों की प्रायु और गति प्रादि का कथन करते हैं :-- पञ्चानां धासुदेवानामादिमानां सुजोधितः । सममायूषि पंचानां तच्छणां भवन्ति च ॥२३॥ षष्टस्यवान पंचाशत्सहस्रवर्षजीवितम् । सप्तमे वत्सराणां द्वात्रिंशत्सहस्रजीवितम् ।।२३६।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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