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________________ ३७६ ] सिद्धांतसार दीपक अब प्रशोक आदि थनों एवं चैत्यक्षों का अवधारण करते हैं :--- वापीनां पूर्वदिग्भागेऽनाशोकं वन मुल्यणम् । एकैकं दक्षिणे भागे सप्तपर्णाह्वयं महत् ।।३२६।। प्रदेशे पश्चिमे स्याच्च चाम्पक सवनं पृथक् । उत्तरायां दिशि प्रोचं वनमाम्राह्वयं परम् ॥३३०॥ बनान्येलानि सर्वाणि नित्यानि भान्ति भूतिभिः । मयूरः कोकिलालापः शुकायश्च द्र मोत्करैः ।।३३१॥ सर्वतु फलपुष्पा पत्यवृक्षः सुरालयः । लक्षयोजनदीर्घारिण दीर्घाधिस्तृतानि च ।।३३२॥ धनानां मध्यदेशेषु तिस्रः स्युर्मणिपीठिकाः । त्रिमेखलाश्रिता दिव्याः प्रत्येकं तुङ्गधिग्रहाः ॥३३३॥ तासां मूनि विराजन्ते चैत्यवृक्षाः स्फुरदुचः । छत्रघण्टाजिनाचौयं विचित्राः प्रोत्रताः शुभाः ॥३३४।। तेषां मूले चतुर्दिस महत्यो जिनमूर्तयः । दोप्राः शक्रादिवन्धााः स्युः पर्यष्कासनस्थिताः ॥३३५।। अर्था:-उन सोलह वापिकाओं की चारों दिशाओं में एक एक वन है। पूर्वभाग में प्रशोक नाम का वन है । दक्षिण दिशा में सप्तपर्ण नाम का महान् वन है ! पश्चिम दिशा में चमक वन और उत्तर दिशा में आम नामक उत्तम वन है ॥३२६-३३०।। ये शाश्वत ६४ ही वन मयूरों, कोकिलायों एवं शुकादिकों के सुन्दर पालापों से एवं द्र मसमूह आदि विभूति से शोभायमान हैं ॥३३१।। सर्ग ऋतुओं के फलों एवं पुष्प आदि से, चैत्य वृक्षों से देवप्रासादों से सुशोभित उन सभी वनों का पृथक पृथक विस्तार पचास हजार योजन और दोघेता ( लम्बाई ) एक लाख योजन प्रमाण है ।१३३२।। उन सभी वनों के मध्यभाग में मरिगमय तीन तीन पीठिकाएँ हैं । प्रत्येक पीठिका तीन तीन दिव्य और उत्त ङ्ग मेखलामों ( कटनियों ) से अलंकृत हैं। उन पीठिकानों के ऊपर नाना प्रकार के छत्र, घण्टा और जिनार्चा आदि से युक्त प्रोन्नत, शुभ और फैलती हुई शु ति से युक्त चैत्यवृक्ष सुशोभित होते हैं। ॥३३३-३३४॥ उन चैत्य वृक्षों के मूल में पूर्वादि चारों दिशाओं में कान्तिमान, इन्द्रादि देवों से बंदनीय एवं प्रचनीय तथा पद्मासन स्थित प्रभावशाली जिन मूर्तियाँ हैं ।। ३३५।। अब वनों में स्थित प्रासादों के प्रायाम प्रादि का तथा अष्टाह्निको पूजा का वर्णन करते हैं :
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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