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________________ १८६ ] सिद्धान्तसार दोपक चतुर्योजनविस्तीरणं चान्यद द्वारद्वयं भवेत् । चतुभियोजनैस्तुङ्ग पोजनद्वय विस्तरम् ।।६३॥ अर्थ:--मध्यम प्रकृत्रिम जिनालय पचास योजन लम्बे, पच्चीस योजन चौड़े, साड़े सैंतीस (३७३) योजन ऊंचे और अर्ध योजन नींव से युक्त होते हैं। इनके उत्तम प्रधान द्वार की ऊँचाई पाठ योजन और चौड़ाई चार योजन प्रमाण है, तथा अन्य दो द्वारों की ऊंचाई चार योजन और चौड़ाई दो योजन प्रमाण होती है ।।६१-६३॥ अब जघन्य जिनालयों एवं उनके द्वारों का प्रमाण बतलाते हैं: पञ्चविंशति संख्यानर्योजनरायताः परे । क्रोशद्वयाधिकद्वादश योजन सुविस्तृताः ।।१४।। त्रिकक्रोशाधिकाष्टादशयोजन समुन्नताः । द्वयकोशावगाहाः स्युर्जघन्याः श्रीजिनालयाः ॥६५॥ एतेषामग्रिमं द्वारं स्याच्चतुर्योजनोन्नतम् । योजनद्वय विस्तोरवं लघुद्वारद्वयं परम् ।।६।। द्वियोजनोरिचुतं च स्यादेकयोजन विस्तृतम् । अपरा वर्णना प्रोक्ता समाना श्रीजिनागमे ॥१७॥ अर्थ:-जघन्य अकृत्रिम जिनालय पच्चीस योजन लम्बे, साढ़े बारह ( १२३) योजन चौड़े, १८३ योजन ऊँचे और अर्ध योजन नींव से युक्त होते हैं। इन चैत्यालयों के प्रधान द्वार चार योजन ऊँचे और दो योजन चौड़े होते हैं, तथा दोनों लघुद्वार दो योजन ऊँचे और एक योजन चौड़े होते हैं। जिनागम में इन तीनों प्रकार के प्रकृत्रिम जिनालयों का अवशेष वर्णन समान ही कहा गया है ॥६४-६७॥ अब तीनों प्रकार के जिनालयों को अवस्थिति का निर्धारण करते हैं: भद्रशालेषु सर्वेषु मेरूगां नन्दनेषु च । वनेषु स्वविमानेषु नन्दीश्वरेषु सन्ति ये ॥६॥ उत्कृष्टायामविस्तारोत्सेवर्युक्ता जिनालयाः । उत्कृष्टास्ते जिमैः प्रोक्ता सर्वे पूज्या नरामरैः ॥६॥ मेरसौमनसोधानेषु विश्वेष कुलादिषु । वक्षारगजदन्तेषु चेष्वाकारनगेष्वपि ॥१००।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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