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________________ तृतीय अधिकार [ ७१ नहीं (नरकों में ) ताम्रमय गृद्धपक्षो और लोहे के मुख वाले कौए अपनी तीक्ष्ण चोंचों एवं नखों से ( मनुष्य पर्याय में जो पशुओं के मर्म स्थानों का छेदन भेदन करते हैं तथा उनके शरीर में हो जाने वाले घावों की पक्षियों से रक्षा नहीं करते ) उन नारकियों के मर्म स्थानों का छेदन करते हैं 11६७॥ खोटे कर्मोदय के वशसे उन नारकी जीवों के छिन्न भिन्न किये हुये शरीर डण्डे से ताडित जल के समान तत्क्षण सम्बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं ।।६८।। मांस भक्षण का फल : खादन्ति नारकास्तेषां मांस भक्षणापतः। शूलपक्वानि मांसानि पुरा ये मांसभक्षिणः ।।६९।। अर्थ:--जिन्होंने पहिले मांस भक्षण किया था, पाप से उन मांस भक्षो जोवों के मांस को अन्य नारको शूलसे ( मांस पकाने का कांटा ) पका कर खाते हैं ॥६६॥ भिन्न भिन्न प्रकार के दुःखों का कथन : काञ्चिल्लोहाङ्गनालिङ्गनाच्च मूर्छामुपागतान् । लोहारवण्डकरन्यः खलास्तुबम्ति मर्मसु ॥७॥ अर्थ:--लोहे की (तप्त ) स्त्री के आलिङ्गन से मूर्छा को प्राप्त होने वाले नारको के मर्म स्थानों पर अन्य दुष्ट नारकी लोह दण्ड के द्वारा चोटें मारते हैं ।।७०।। सर्वाङ्गकण्टकाकीर्णेषु शाल्मलिद्र मेषु च ।। भस्त्राग्निदोपितेष्वन्यानारोपयन्ति नारकाः ॥७१।। अर्थः-सर्वाङ्ग में तीक्ष्ण कांटों से व्याप्त शाल्मलि वृक्षों पर और अग्नि से दैदीप्यमान भट्टों पर उन नारको जीवों को चढ़ाते हैं ॥७१।। निघर्षन्त्यपरे तेषु सर्वाङ्गष द्र मेष तान् । गृहोस्वान्ये च पाक्षेषु घ्नन्त्याहत्य धरातते ॥७२॥ अर्थः-अन्य कोई नारकी उन कण्टकाको सम्पूर्ण वृक्षों पर उन्हें घसीटते हैं, और अन्य कोई उन बेचारों को जमीन पर पटककर तथा पैरों में फंसा कर मारते हैं ॥७२11 नित्यस्नानोत्थ पापेन, वैतरण्यम्बु बोचिषु । यान्त्यस्यन्ताकुलीमावं, केचिरकश्चित्प्रमज्जिताः ।।७।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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