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सिद्धान्तसार दीपक केचिच्च स्वयमागत्यतीबोष्णाग्निकरालिताः । क्षारपूतिजलेतस्या, मज्जन्ति तापशान्तये ।।७४।। तेन दुःस्पर्शनीरेण, नितरां ते कथिताः। असिपत्रवनान्याशु, विश्रामाय श्रयन्ति भोः ॥७५।। तेषु तीवो मरवाति, विस्फुलिङ्गकणान् किरन् । तेन पत्राणि पात्यन्ते, खड्गधारासमानि च ।।७६॥ तेषां गात्राणि छिद्मन्से, भियन्ते चाखिलानि तैः । ततस्ते बनान्ताः, पापुर्वन्ति यमरः ।।७ तस्मात्ते च गलद्रक्त-धारातीष कुरूपिणः । प्रविशन्ति स्वयं स्थित्य, गत्वाश्रु पर्वतान्तरम् ।।७।। तत्रापि नारका एतान खादन्ति दारयन्ति च ।। व्याघ्रसिंहाहि पक्ष्याविरूपैः स्वविकियोद्भवः ।।७।। केचित्तान नारफान दीनान् धृत्वा पादेष्वधो मुखान् । पर्वताग्रावधो भागं पातयन्ति महीतलम् ।।१०।। सद् घातात् खण्डखण्डाङ्ग-भूतांस्तान् शरणार्थिनः । यत्रमुष्टिप्रहारायनन्त्यन्ये रौद्ररूपिणः ॥८॥ व्रणजजरितान् कांश्चिदतीबवेदनाकुलान् ।
भद्रं कुर्वेवमित्युक्ता सिंचन्ति क्षारवारिभिः ॥१२॥ अर्थ:--नित्य ही अगालित एवं अप्रमाण जल से स्नान करने के कारण जो पाप उत्पन्न हये थे उन्हींके फल स्वरूप कोई जीव वैतरणी नदी को कल्लोल मालानों के बीच पाकुलीभाव को प्राप्त होते हैं, कोई जी व अन्य नारकियों द्वारा उसमें डुबोये जाते हैं और कोई असह्य तीव्र उष्ण अग्नि की ताप के कारमा अाक्रन्दन करते हुये उस नदो पर आकर ताप शान्ति के लिये नदी के क्षार एवं दुर्गन्धित जल में स्वयं डूब जाते हैं । किन्तु भो भव्य जनो ! उस जल के दुःस्पर्श से अत्यन्त पीडित होते हुये वे नारकी विश्रान्ति के लिये शीघ्न हो. असिपत्र वनों का प्राश्रय लेते हैं । जिनमें ( अग्नि के ) विस्फुलिंग कणों को फैलाती हुई वायु वहतो है जिससे असिधारा के समान पत्ते नीचे गिरते हैं, जो उन नारकियों के सम्पूर्ण शरीर को छेद देते हैं और भेद देते हैं, इसलिये वे बेचारे असहाय वेदना से प्राक्रान्त होते हुये चीत्कार ( हा हा कार ) करते हैं । शरीर भेदन के कारण बहतो हुई रक्त धारा से जो अत्यन्त कुरूप हो रहे हैं ऐसे वे नारको सुख से स्थित होने के लिये शीघ्न ही पर्वत के ऊपर जाकर स्वयं ही