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________________ .. तृतीय अधिकार [ ७३ उनकी गुफाओं में प्रवेश करते हैं, किन्तु वहां भी अपनी विक्रिया ( प्रपृथक विक्रिया ) से उत्पन्न हुये व्यान, सिंह, सर्प प्रावि हिंसक पशु अपने शरीरों के द्वारा उन नारकियों को विदारण कर देते हैं और खाते हैं ।।७३-७६॥ कोई दुष्ट नारको अधोमुख उन बेचारे दोन नारकियों को अपने पैरों पर रख कर पर्वत के ऊपर से नीचे पृथ्वी पर पटक देते हैं, जिसके धात से खण्ड खण्ड हो गये हैं शरीर जिनके ऐसे शरण के इच्छुक उन नारक्रियों को अन्य कोई दुष्ट नारकी व मुष्टियों के प्रहारों से मारते हैं। तुम्हारे इन गहरे घावों से होने वाली तीव्र वेदना को मैं शीघ्र ही ठीक करता हूँ ऐसा कहकर अन्य कोई नारकी उन घावों को क्षार जल से सींचते हैं 11८०-१२।। गर्व करने का फल : पुरागिणागि पापनि गरजांचनमः। तप्तलोहासनेष्यत्र तानासयन्ति नारकाः ॥३॥ अर्थः-पूर्व जन्म में नाना प्रकार के बढ़ते हुये मद समूह से सञ्चित पाप के फल स्वरूप उन नारको जीवों को अन्य नारकी तप्तायमान लोहे के आसनों पर बैठाते हैं ।।८३॥ अयोग्य स्थान में शयन करने का फलः परस्त्रीनिकटातीवमृदुशय्योत्यपापतः। शायन्ति परे कांनिच्छितायःकण्टकारतरे ॥४॥ अर्थः-पूर्व भव में परस्त्री के साथ प्रति मृदुल शय्या पर सोने से जो पाप बंध किया था उससे अन्य कोई नारकी उन्हें लोहे के तोक्षण कांटो के ऊपर सुलाते हैं ||८४॥ सप्त व्यसन सेवन का फल:-- सप्तध्यसन सेवोत्था-घोक्याविह नारकान् । केचित् निशात शूला-वारोपयन्स्यशर्मणे ॥५॥ बध्वा शृङलया स्तम्भे, कांश्चिच्च क्रकच खलाः । वारयन्त्यखिलांगेषु, स्वाक्रन्दं कुर्वतो बलात् ।।६।। अर्थः -पूर्व भव में सप्त व्यसनों का सेवन करके जो पाप उपार्जन किया, उसके उदय से नरक में उन नारकी जीवों को कोई नारकी भयङ्कर दुःख देने के लिये तीक्ष्ण शूल के अग्रभाग पर चढ़ा देते हैं और कोई दुष्ट प्राक्रन्दन करते ( दुःख से चिल्लाते) हुये उन जीवों के सम्पूर्ण शरीर को जबरदस्ती सांकल द्वारा स्वम्भे पर बांधकर करोंत से चीरते हैं ॥८५-८६॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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