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________________ ७० ] सिद्धान्तसार दीपक मद्य आदि पेय पदार्थ पीने का फलः मुखं विदार्य संवंशैर्वलत्तास्ररसं बलात् । क्षिप्यते नारकस्तेषां मद्यपानोत्य पापतः ||६३ ॥ अर्थ::-मद्य आदि अनेक प्रकार के अपेय पदार्थ पीने से जो पाप संचय हुआ था उससे ये नारकी जीव सन्धासी से मुख फाड़ कर बलपूर्वक उसमें जलता हुआ ताम्ररस डाल रहे हैं ।। ६३|| परस्त्री सेवन का फलः दृढमालिङ्गनं केचित् कारयन्ति बलाद् गले । तप्तलोहांगनाभिश्च परस्त्रीसंगजाघतः ॥ ६४ ॥ अर्थ :- परस्त्री सेवन से उत्पन्न पाप के फल स्वरूप वे नारकी जीव बल पूर्वक गले में तप्त लोहे की स्त्री से श्रालिङ्गन करा रहे हैं ॥ ६४॥ जीवों को छेदन भेदन आदि के दुःख देने का फलः विधाय नारकांगानां सूक्ष्मखण्डानि कर्त्तनः । निः पीडयन्ति यन्त्रेषु बलन्त्यश्मपुटादिभिः ॥ ६५|| क्वाथयन्ति च कुम्भीषु, निर्दयाः नारकाः परे । चूर्णयन्त्यस्थिजालं च, ताडयन्तिपरस्परम् ॥६६॥ गृध्रास्ताम्रमयास्तत्र, लोहतुण्डाश्च वायसाः । मर्माणि दारयन्त्येषां चञ्चुभिनंखरैः खरः ॥६७॥ छिन्नभिनानि गात्राणि, सम्बन्धं यान्ति तत्क्षणम् । दण्डाहतानि वारीखी-व तेषां दुविधेवंशात् ॥ ६८ ॥ अर्थ : - [ मनुष्य पर्याय में जो धनान्ध तेल श्रादि के मील खोल कर और बड़ी बड़ी चक्कियां लगा कर बिना शोधन किये अनाज आदि पिसवा कर महान पाप संचय करते हैं ] उन नारकी जीवों के शरीरों के कंची द्वारा छोटे छोटे टुकड़े करके यन्त्रों में (घानी में ) पेलते हैं और पत्थर की चक्कियों द्वारा उन्हें पीसते हैं ॥ ६५ ॥ वे दुष्ट और निर्दयी नारकी दूसरों को हाण्डियों में पकाते हैं, हड्डियों का चूर कर देते हैं और आपस में एक दूसरे को मारते हैं ।। ६६ ।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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