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________________ तृतीय अधिकार [ ६६ अर्थः- पूर्व जन्म में किये हुये पापों से उत्पन्न होने वाला यह दुःखों का समूह यहाँ हमें खा रहा है ! अब हम कहाँ जाएँ ? किससे पूछे ? क्या करें ? और क्या कहें ? किसकी शरण जाएँ ? यहाँ दुःख समूह से निरन्तर होने वाली यह महान् नरक वेदना सहन करने में हम कैसे समर्थ होवें ॥५५-५६॥ पूर्व दुष्कर्मों के पाक से उत्पन्न होने वाला यह दुस्तर महान् दुःस्वरूपी समुद्र आयु क्षय निना कैसे पार करें, क्योंकि अपनी भुज्यमान प्रायु के पूर्ण हुये विना शरीर के तिल बराबर खण्ड खण्ड कर देने पर भी यहां नारकी जीवों का असमय में मरण नहीं होता ॥५७-५८।। इस प्रकार दुरात्मा नारको जीवों के अन्त.करण पूर्व जन्म में किये गये पापों से उत्पन्न होने वाली पश्चाताप रूपी अग्नि से निरन्तर जलते रहते हैं ।।५।। अन्य नारकी जीवों द्वारा दिये हुये भयङ्कर दुःखों का दिग्दर्शन: शतची प्रकुर्वन्ति, सर्वगात्राणि नारकाः । मुद्गरादिप्रहारौघे निभस्य कटुकाक्षरः ॥६॥ अर्थः-नारकी जीव भत्स्ना पूर्वक कटुक वचनों द्वारा एवं मुद्गर आदि प्रहार समूहों द्वारा सम्पूर्ण शरीर के सैकड़ों टुकड़े कर देते हैं ॥६०॥ जीवों के नेत्र फोडने का और अङ्गोपाङ्ग छेदन का फलः उत्पाटयन्ति नेत्राणि चक्षुविकारजाशुभैः । अङ्गोपाङ्गानिकृन्तन्ति चाङ्गोपाङ्गकृताधतः ॥६१॥ अर्थः-पूर्व जन्म में अन्य जीवों के नेत्र फोड़ देने से एवं अङ्गोंपाङ्गों का छेदन भेदन प्रादि कर देने से जो पाप एवं अशुभ कर्म संचय हुआ है उसोके कारण नारकी नेत्र उखाड़ लेते हैं, और अङ्गोपाङ्ग काट लेते हैं ॥६१शा दूसरों के प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले पाप का फल: चित्तोत्थपापपाकेन विदार्य जठरं बलात् । केचित् कुवाश्च केषाञ्चित् त्रोटयन्यन्त्रमालिकाम् ॥१२॥ अर्थ:--अन्य जीवों के बुरे चिन्तन प्रादि से चित्त में जो विकार उत्पन्न होता है उस पापोदय के फल स्वरूप कोई नारकी क्रोधित होते हुये बल पूर्वक पेट विदीर्ण कर देते हैं और कोई यन्त्रादिकों में पीस देते हैं ।।६।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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