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________________ ६८ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रतो मन्यामहेऽत्रैवं स्वजनाः पापहेतवः । शत्रवः स्युश्च पञ्चाक्षाः काला नागा न चापरे ।।५२।। अर्थ:-जिन स्त्री, पुत्र, बन्धु बान्धवों के वैभव या उन्नति के लिये यथार्थ में मैंने बहुत पाप किये थे वे कुटुम्बी जन उस पाप का फल भोगने के लिये मेरे साथ अभी यहां नहीं आये । पूर्व भव में नाना प्रकार के भोग्य पदार्थों द्वारा मैंने जिनके शरीर और पञ्चेन्द्रियों का पोषण किया था, वे दुष्ट शत्र, सदृश बन्धुजन मुझको यहाँ नरक में पटककर चले गये, इसलिये मैं ऐसा मानता हूँ कि पाप के कारणभूत स्वजन तो शत्रु हैं और पञ्चेन्द्रियों के विषय काले नाग हैं, इससे अधिक कुछ नहीं 11५०-५२।। यवक्तं सूरिभिः पूर्व, सहगामि शुभाशुभम् । प्रत्यक्षतामगानोऽद्य, तवत्र पाकसूचकम् ॥५३॥ पुराकृतानि पापानि मनसापि स्मृतानि च । अन्तर्मर्माणि कृतन्त्यधुना नः क्रकचानि वा ॥५४॥ अर्थः—पूर्व में प्राचार्यों के द्वारा जो कुछ कहा गया था वह पापोदय का सूचक सहगामी शुभाशुभ आज यहाँ मेरी प्रत्यक्षता को प्राप्त हो रहा है ॥५३॥ पूर्व जन्म में किये गये पाप प्राज मन से स्मृति करने पर मेरे अन्तःस्थल के मर्म को करोंत के समान छेद रहे हैं ॥५४॥ अत्र प्राकृत पापोत्थ-वःखौघग्रसिता वयम् । क्व यामः कं च पृच्छामः, कि कुर्भाव म एव किम् ॥५५॥ बजामः शरणं कस्या-त्रास्मावदःखौघ सन्सतेः। सोढव्याः कथमस्माभि-महत्यः श्वनवेदनाः ।।५६॥ पूर्वदुष्कर्मपाकोत्थ-मिमं दुःखार्णवं परम् । दुस्तरं चोत्तरिष्यामः, कपमायुः भयं विना ।।५७॥ यतोऽत्र मरणं न स्यान् नारकारणां कदाचन । सत्यायुषिनिजेऽल्पेऽपि, तिलतुल्याङ्ग खण्डनः ।।५।। इति प्रावकृत दुष्कर्मम पश्चात्तापवह्निभिः । दहघमामान्तरङ्गाणां, नारकाणां दुरात्मनाम् ।।५९॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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