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________________ तृतीय श्रधिकार इत्याद्यन्यदु राचारं - दुष्कर्माण्यजितानि च । तानि पूर्वमिहापसानों दुःखादिराशयः ।।४७ || अर्थः :-नष्ट बुद्धि, विषयान्ध और व्रतशील यादि से रहित मैंने पूर्व भव में अल्प सुख के लिये निरन्तर पंचेन्द्रियों के विषयों का सेवन किया है ||४३|| मैंने अज्ञानता से पुण्यार्जन के लिये करोड़ों खोटे श्राचरणों ( ३ मूढता, ६ अनायतनों के द्वारा एवं बलि आदि के ) द्वारा महान् मिथ्यात्व और मिध्या देव, शास्त्र, गुरुयों का सेवन किया है ॥ ४४ ॥ सप्त व्यसनों में अत्यन्त आसक्ति होने के कारण मैंने किञ्चित् भी व्रतों का पालन नहीं किया, और न शील, दान, पूजा एवं अर्चना आदि के द्वारा किञ्चित् भी पुण्य उपार्जन किया। पूर्व भव में धर्मात्मा पुरुषों ने धर्म धारण करने के लिये मुझे बार बार उपदेश दिया किन्तु कठोर और कटु वचन खोलने वाले मुझ नरक गामी ने उनके उपदेश नहीं माने। इस प्रकार के तथा और भी अन्य प्रकार के दुराचारों द्वारा जो दुष्कर्म उत्पन्न किये थे वही पाप यहाँ पर दुःख की राशि रूप से उपस्थित हुये हैं ।।४५-४७।। पश्चाताप श्रीषा का विदेश : कैश्चित्पुण्यजनंः शवस्या नभये साधितो महान् । स्वर्गो मोक्षोविचारज्ञः सत्तपश्चरणादिभिः ॥ ४८ ॥ [ ६७ दुर्लभ भवे प्राप्ते धर्मस्वर्मुक्तिसाधके । + अस्माभिरर्जितं श्वभ्रं दुराचारः स्वघातकम् ||४| J अर्थ :- मनुष्य भव में समीचीन तपश्चरण श्रादि को धारण करने वाले विचारवान् पुण्य पुरुषों के द्वारा मपनी शक्ति के अनुरूप स्वर्ग मोक्ष का महान साधन किया जाता है, किन्तु स्वर्गमुक्ति का साधक दुर्लभ मनुष्य भव प्राप्त होने पर भी मैंने धर्म पालन तो नहीं किया परन्तु दुराचारों के सेवन द्वारा स्व श्रात्मा का घात करने वाले नरक का अर्जन किया है, अर्थात् इतना घोर पाप उपार्जन किया जिससे नरक भाना पड़ा ।४५-४६ ।। ये स्त्रीपुत्रबधूनां भृत्यर्थं पापमञ्जसा । कृतं ते तत्फलं भोक्त नात्रामास्माभिरागताः ॥ ५० ॥ पोषिता येङ्गपञ्चाक्षा नानाभोगः पुराः खलाः । तेष्वस्मान्' पातयित्वात्र इव गता इवारयः ॥ ५१॥ १. तेऽप्यस्मात् ज० न० ।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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