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________________ ६६ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रभक्ष भक्षण और पांच पापों का चिन्तन :-- यतोऽति विषयासक्त्या, खादितानि बहूनि छ । अखाधान्यशुभाश्या-मि पीतानि स्वशर्मणे ॥३६॥ अस्माभिनियः पूर्व, जीवराशिहतो बलात् । असत्यकटकादीनि, दुर्वचास्युदितानि च ॥४०॥ हतानि परवस्तुनि, मायाकौटिल्यकोटिभिः । सेविताः पररामाद्या दौष्टया रागान्धमानसः ॥४१॥ भूयान् परिग्रहो लोभान, मेलितः स्वाक्षशर्मणे । बह्वारम्भः कृतो नित्यम् श्रीस्त्रीकुटम्बहेतवे ॥४२॥ अर्थः-अपने इन्द्रिय सुख के लिये विषयासक्त मेरे द्वारा बहुत से अखाद्य ( मांस, अण्डा, मालू मूली आदि कन्दमूल एवं अभक्ष) पदार्थ खाये गये हैं और अपेय ( शराब एवं बाजार की चाय दूध आदि ) पदार्थ पिये गये हैं ।। ३६॥ पूर्व भव में मुझ निर्दयी ने जबरदस्तो ( संकल्प पूर्वक ) अनन्त जीव राशि मारी है । असत्य, कटुक एवं निन्दा आदि के दुर्वचन कहे हैं । करोड़ों प्रकार को वञ्चना एवं कुटिलता द्वारा पर वस्तुओं का हरण किया है । सग से अन्धे होते हुये मैंने दुष्टता पूर्वक परस्त्री का सेवन किया है। अपने इन्द्रिय सुखों के लिये लोभ से ग्रसित होकर मैंने महान् परिग्रह एकत्रित किया है, और लक्ष्मी (धन संचय ), स्त्री एवं कुटुम्ब आदि के लिये नित्य ही बहुत भारी प्रारम्भ किया है ॥४०-४२।। धर्माचरण रहित एवं कुधर्म सेवन पूर्वक पूर्व भव व्यतीत करने का पश्चात्तापः निःशीलविषयान्धेच, पञ्चाक्षाणि निरन्तरम् । सेषितानि पुरास्माभिः सौख्याय नष्टबुद्धिभिः ॥४३॥ श्रेयसेऽनुष्ठितं मौढयान मिथ्यात्वं केवल महत् । कुवेव'कुगुरुशास्त्र-कुत्सिताचार कोटिभिः ॥४४॥ प्रतीवग्यसनासक्तं: पालितं न मनाग्वतम् । शोलं वा न कृतं पुण्यं दानपूजार्चनादिभिः ॥४५॥ धर्मिणो धर्ममत्यर्थ, दिशंतोपि पुरा मुहुः । श्वभ्रगामिभिरस्माभिः कटुवाक्यैरमानिसाः ॥४६॥ १. कुदेवकुगुरुकुशान ज. न.
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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