SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अधिकार [६५ जन, स्वामी और नौकर प्रादि दिखाई नहीं देते, तथा न अर्धनिमेष मात्र सुख और न सुख उत्पन्न करने वाली अन्य कोई वस्तुएँ हो दिखाई देती हैं ॥३०-३२।३ वयं केन विहानीता रौवस्थाने कुकर्मणा । कृत्स्न दु:खाकरीभूते पापारिकवलीकृताः ॥३३॥ अर्थः-खोटे कर्मों में रत और पापी शत्रुओं द्वारा भक्षण किये जाने वाले हम सब इस सम्पूर्ण दुःखों के खान स्वरूप रौद्र स्थान में किस पापकर्म के द्वारा लाये गये हैं ॥३३॥ पूर्व जन्म में किये हुये पापों का चिन्तन एवं पश्चाताप: इत्यादि चिन्तनातेषां प्रादुर्भवति दुःखदः । विभङ्गाधिरेव स्व प्राग्जन्म वैरसूचकः ॥३४॥ तेन विज्ञायते सर्व' भवानाचारमजसा । पश्चात्तापाग्नि सन्तप्ताः शोचन्तोति स्वदुविधीन् ॥३५॥ अहो ! दुष्कर्मकोटोभिरस्मामिः स्वात्मनाशकम् । यन्निन्द्यमजितं पापं महत् पञ्चाक्षञ्चितः ॥३६॥ तेनास्माकं निरौपम्या दुःखक्लेशादि कोटयः । प्रादुरासन् जगन्निन्द्या अस्मिन् क्षेत्र सुखालिगे ।१३७।। अर्थ:-इस प्रकार के चिन्तन मात्र से उन नारकी जोबों को अपने पूर्व जन्म के वर का सूचक और दुःख उत्पत्ति का कारण कुपवधिज्ञान ( जातिस्मरणज्ञान ) स्वयं प्रगट हो जाता है । जिसके द्वारा बे अपने पूर्व भव के अनाचारों को और अपनो सम्पूर्ण दुष्ट क्रियाओं को शीघ्र ही जान लेते हैं, प्रतः पश्चाताप की अग्नि से सन्तप्त होते हुये इस प्रकार विचार करते हैं कि अहो ! पञ्चेन्द्रियों के विषयों से ठगे हुये एवं करोड़ों दुकर्मों के द्वारा हमने अपनी आत्मा के नाशक अत्यन्त निन्ध जो महान पाप अजित किये हैं, उनके द्वारा ही इस दुःखदाई क्षेत्र में निन्दनीय और उपमा रहित करोड़ों दुःख एवं कलेश प्रगट हो रहे हैं ।।३४-३७।। हा ! सर्षपाक्षसौख्याथ लम्पटेस्तवघं कृतम् । प्रस्माभिः प्राग भवे येनाभूत् दुःख मेरुसम्मितम् ॥३८॥ अर्थ:-हा ! पुर्व जन्म में इन्द्रिय लम्पट होकर मैंने सरसों बराबर इन्द्रिय सुखों के लिये जो पाप किये थे उनमे ये मेरु सदृश दुःस्त्र मुझे प्राप्त हो रहे हैं ।।३८॥ १ पूर्व प्र०
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy