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सिद्धान्तसार दोपक समान लोह का पिण्ड डाल दिया जाय तो वह तीव्र तुषार के कारण शीघ्र ही विलीन हो जाता है इसमें संशय नहीं है ॥२४-२६॥ विभिन्न प्रकार के दुःखों का विवेचनः
यत् किश्चिद दुःखवं द्रव्यं पञ्चाक्षाङ्गमनोऽप्रियम् ।
तत् सर्व तेषु तेषां स्यात् पिण्डितं पापकर्मभिः ॥२७॥ अर्थः-पञ्चेन्द्रियों के विषय सम्बन्धी जितने भी दुःख उत्पादक, अप्रिय एवं प्रभोग्य पदार्थ हैं, वे सब पापकर्म के उदय से नरकों में उन नारको जीवों के लिये एकत्रित हैं ।।२७।।
इत्यशर्मनिधानेष पापिनः पापपाकतः ।
अधोमुखाः पतास्येषु पापिनामुन्नतिः कुतः ॥३८।। अर्थ:-इस प्रकार दुःखों के निदान स्वरूप इन नरकों में पापी जीव पापोदय से अघोमुख गिरते हैं, क्योंकि पापियों की ऊर्ध्वगति कहाँ ? अर्थात् पाप के भारसे युक्त जीब ऊपर कसे जा सकते हैं ॥२८॥
तत्रात्युष्णाग्निसन्तप्ता बराकाः पतिताश्च से।
निपतन्युत्पतन्त्याशु तप्तनाष्ट्रतिला इव ॥२६॥ अर्थः-जिस प्रकार तप्त भार में डाले गये तिल (या चना आदि अन्य धान्य) तुरन्त ही ऊपर उचट कर फिर नीचे गिरते हैं, उसी प्रकार वे बेचारे दीन नारको जीव अग्नि से सन्ता अति उष्ण भूमि में पड़ने के बाद शीघ्र ही (अनेकों बार) ऊपर उछल उछल कर नीचे गिरते हैं ॥२६॥
ततोऽति वेदनाकान्तास्ते तत्क्षेत्रं भयानकम् । प्रचण्डाम्नारकान वीक्ष्येतिचित्ते चिन्तयन्ति च ॥३०॥ महो ! निन्धमिवं क्षेत्रं किमापदां किलाकरम् । केऽमी व नारका रौद्रा मारणकपरायणाः ॥३१॥ नचात्र स्वजनः स्वामी मृत्यो या जात दृश्यते ।
निमेषाधं सुखं सारं सुखकृत् वस्त नो परम ॥३२॥ अर्थः- इस प्रकार उस क्षेत्र सम्बन्धी भयङ्कर वेदना से भाक्रान्त जब वे नारकी जीव अन्य भयावह नारकियों को देखते हैं, तब विचार करते हैं कि हाय ! आपदामों की खान स्वरूप यह निन्य क्षेत्र कौन है ? मारकाट में परायण ये दुष्ट नारकी कौन हैं ? यहाँ कहीं भी मेरे कोई कुटुम्बी