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________________ ६०२.] सिद्धान्तसार दीपक अब सूच्यगुल से लेकर लोक पर्यन्त का प्रमाण या लक्षण कहते हैं:सूच्यङ्गुलमुच्यतेः-- आधारपल्योपममार्धिन तावत्प्रकर्सव्यं यावद् रोमकं तिष्ठेत् । तत्र यावन्त्यर्घच्छेदनानि प्राधारपल्योपमस्य तावन्मात्राधारपल्यानि परस्परगुरिगतानि यत्प्रमाणं भवति तावन्मात्रा प्राकाशप्रदेशाः ऊर्ध्वमावल्याकारेण रचिताः, तेषां नमःप्रदेशानां यत्प्रमाणं तत्सूच्यङ्गुलं स्यात् । तत्सूच्यङ्गुलमपरेण सूच्यालेन गुरिणतं प्रतराङ्गुलं भवति । प्रतराङगुलं अपरेण सूच्यङगुलेन गुरिणतं घना गुलं कथ्यते । पञ्चविंशतिकोटीकोटीनामुद्धार पल्यानां यावन्ति रूपाणि लक्षयोजनार्धच्छेदनानि च रूपाधिकानि । एकैकं द्विगुणीकृतानि अन्योन्याभ्यस्तानि यत्प्रमाणं सा रज्जुः । सप्तभिर्गुणिता रज्जू जगच्छेरिणरुच्यते । जगच्छ्रेणिरपरया जगच्छ्रेण्या गुणिता लोकप्रतरं स्यात् । लोकप्रतरं जगच्छ ग्या गुणितं लोकः कथ्यते । अर्थः-आधार पल्योपम के इस रीति से प्रधं अर्ध भाग करना चाहिए कि अन्त में मात्र एक रोम रहे । यहाँ प्राधार पल्प के जितने अर्धच्छेद प्राप्त हों उतनी संख्या बार भाधार पल्यों का परस्पर में गुणा करने से जो लब्ध पावे, उतनी संख्या प्रमाण प्राकाश प्रदेशों को कवं पंक्ति के आकार रचना करना चाहिए । उन आकाश प्रदेशों की जितनी संख्या है, वही सूच्यंगुल का प्रमाए है । इस सुच्यड गुल को अन्य सूच्यङ गुल से गुरिणत करने पर प्रतराङ गुल होता है और प्रतराङ गुल सूच्चंगुल से गुणित करने पर धनाङ गुल की प्राप्ति होती है। २५ कोटाकोटी उद्धार पल्य के जितने समय हैं, उनमें एक लाख योजन के अर्धच्छेदों को जोड़ कर अन्य एक अङ्क और मिला देने से जो प्रमाण पावे उतनी बार दो दो रख कर उन दो दो को परस्पर में गुरिणत करने पर जो राशि उत्पन्न होती है, वही राजू का प्रमाण है। विशेषार्थ :--मध्यलोक पूर्व-पश्चिम एक राजू है । उस एक राजू में समस्त द्वीप समुद्र हैं, जिनका प्रमाण २५ कोटाकोटी उद्धार पल्य के समयों के बराबर है, किन्तु प्रत्येक द्वीप व समुद्र परस्पर में एक दूसरे से दुगुणे दुगुणे होते गये हैं, अत: द्वीप समुद्रों को जो संख्या है, वह एक राजू के अर्धच्छेदों से कम है, क्योंकि प्रारम्भ में एक लाख योजन व्यास वाला जम्बूद्वीप है, अतः इस एक लास्त्र योजन के अर्धच्छेद द्वीप-समुद्रों की संख्या में जोड़ देना चाहिए । लवण समुद्र में दो अर्धच्छेद पड़ते हैं, इसलिए एक अङ्क और मिलाया गया है । इस प्रकार द्वीप-समुद्रों की संख्या (२५ कोटाकोटी उद्धार पल्य के समयों ) में एक लाख योजन के अर्धच्छेद व एक अङ्ग और मिलाने से एक राजू के अर्धच्छेद प्राप्त हो जाते हैं । जितने अर्धच्छेद हैं उतने दो दो के अङ्क रच कर परस्पर गुणा करने से राजू का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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