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________________ षोडशोऽधिकार: वककशतेनैव रोमराशेः पृथक क्रमात् । एक हियते रोमं तवन्तं याववजसा ।।४९।। एवं कृते भवेद्यावत्कालः केवलिगोचरः । तावत्कालप्रमाणे सक्लारपज्य एव सः॥५०॥ गतासूचारपन्यानां द्विपञ्चकोटिकोटिषु । द्वीपाब्धिसंख्य हेतुश्च जायेतोद्धारसागरः ॥५१॥ अर्थ:-व्यवहार पल्य के वे रोमांश असंख्यात कोटि वर्षों के समयों द्वारा गुरिणत होकर वृद्धि को प्राप्त हुये असंख्यात हो जाते हैं अर्थात् उन रोमांशों को असंख्यात कोटि वर्षों के समयों से गुणा करने पर जो प्रमाए। प्राप्त होता है, वह असंख्यात होता है ।।४८।। उस असंख्यात रोगों की राशि में से क्रम से प्रत्येक सौ वर्ष बाद एक एक रोम निकालने पर जितना काल होता है, केवलि गोचर उतना ही काल उद्धार पल्य के काल का प्रमाण है ॥४६-५०।। इसी प्रकार के २५ कोटाकोटी उद्धार पल्या अर्थात् २३ उद्धार सागरों के जितने समय हैं, उतनी ही द्वीप समुद्रों की संख्या है। द्वीप समुद्रों की संख्या बतलाने के लिए उद्धार पल्य का कथन किया गया है ॥५१॥ अब प्राधार (अद्धा) पल्य एवं प्राधार सागर का प्रमाण कहते हैं: उद्धारपन्यएवासौ शताब्दसमयः पुनः । गुणितो जायते विद्भिराधारपल्य उत्तमः ॥५२॥ बशस्वाधारपन्यानां गतासु कोटिकोटिषु । जायते सकलोत्कृष्ट प्राधारसागरोपमः ॥५३।। कालायुः कर्मणां यत्र वर्ण्यन्ते स्थितयो बुधैः । तत्रेतो पल्यवा?स्त प्राधाराधारनामको ।।६।। अर्थः-एक उद्धार पल्य के सम्पूर्ण रोमों को १०० (असंख्यात ) वर्षों के समयों से गुणित करने पर जो संख्या प्राप्त हो वही संख्या विद्वज्जनों ने उत्कृष्ट प्राधार ( प्रद्धा ) पल्य की कही है ॥५२।। १० कोटाकोटी प्राधार पल्यों का एक उत्कृष्ट आधार ( श्रद्धा ) सागर होता है ॥५३॥ विद्वानों के द्वारा उत्सपिणी आदि कालों का प्रमाण, प्रायु एवं कर्मों की स्थिति का प्रमाण इन्हीं माधार पल्य तथा प्राधार सागर से किया गया है ।।५४।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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