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षष्ठोऽधिकारः
मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञाः--
विवेहस्थान जिनेन्द्रादीन् प्रणम्य परमेष्ठिनः ।
तन्मूादीश्च वक्ष्येऽहं विदेहक्षेत्रमुत्तमम् ॥१॥ अर्थः-विदेह क्षेत्रों में स्थित विद्यमान तीथडुरों को, उन [ग्रहन्तों की प्रतिमानों को तथा पञ्चपरमेष्ठियों को नमस्कार करके मैं उत्तम विदेह क्षेत्र को कहूँगा। अर्थात् विदेह क्षेत्र का विस्तार पूर्वक वर्णन करूंगा ।।१।। विदेहक्षेत्रस्थ सुदर्शन मेरु का सविस्तार बर्गन:--
तस्यमध्ये महामेरुः सुदर्शनाह्वयोमहान् । नवाधिकनवत्या चोच्छुितःसहस्रयोजनैः ॥२॥ योजनानां सहस्र ककन्दस्त्रिक्षण' अजितः । विचित्राकारसंस्थानोनाभिवद्भाति सुन्दरम् ।।३।। सहस्रपोजनैवज्रमयश्चित्राधरान्तगः । नानारत्नमयो मध्ये स्यादेकषष्टिसम्मितः ।।४।। सहस्रयोजनश्चाग्रेशातकुम्ममयोगिरिः ।
नित्यो दीप्तोयमत्राष्टत्रिंशत्सहस्रयोजनः ।।५।। अर्थ:-विदेह क्षेत्र के मध्य में मुदर्शन नाम का एक श्रेष्ठ महामेरु है, जो ६६००० योजन ऊंचा, १००० योजन को जड़ वाला, अनादिनिधन, श्रेष्ठ. सुदर और नाना प्रकार के आकारों से युक्त तथा जम्बूद्वीप की नाभि के सदृश शोभायमान होता है । यह सुमेरु पर्वत चित्रा पृथ्वी के अन्त पर्यन्त अर्थात् मूल में एक हजार योजन प्रमाग वन्नमय, मध्य में इकसठ हजार योजन पर्यन्त अनेकों रत्नमय और अग्रभाग में ३८००० योजन पर्यन्त देदोप्यमान स्वर्गमय एक अकृत्रिम है ॥२-५॥
१. निकाले
२. दीनो अ. ज.मे.