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दशमोऽधिकार:
[ ३८७ अर्थ:-रुचकावर द्वीप ने डर भुजगदीप, बाद कुमार नामक दोग, पश्चात् क्रौंचवर द्वीप, पश्चात् मनःशिल द्वीप, पश्चात् हरिताल द्वीप, पश्चात् सेन्दुर द्वीप, श्थामाङ्क द्वीप, प्रजन द्वीप, हिंगुल द्वीप, रूप्यक द्वीप, सुवर्ण द्वीप, वज नामक द्वीप, वडूयं द्वीप, भूतकर द्वीप. यक्ष द्वीप और देव द्वोप हैं, इस प्रकार आगे आगे शुभ नाग वाले और पूर्व पूर्व समुद्रों से दूने दूने विस्तार वाले असंख्यात द्वीप हैं ।।३८२-३८४॥ इन समस्त द्वीपों के अन्तरालों में अपने अपने द्वीप के नाम सदृश नाम वाले प्रसंख्यात ही सागर हैं ।।३८५।। ये सर्व असंख्यात द्वीप समुद्र अकृत्रिम हैं, अर्थात् किन्हीं के द्वारा बनाये नहीं गये, ये समस्त मनोहर द्वीप समुद्र शाश्वत अर्थात् अनाद्यनन्त हैं ॥३८६।। अब अन्तिम द्वीप एवं समुद्र का नाम, अवस्थान तथा व्यास प्रादि कहते हैं :--
सर्वद्वीपाधि राशीनां द्वीपो ज्येष्ठोऽस्ति चान्तिमः । मध्यलोकस्य पर्यन्ते स्वयम्भूरमणाह्वयः ।।३८७।। बहिमि तमावेष्टय स्वयम्भूरमणार्णवः ।
असंख्ययोजनध्यासो रज्जुसूचीयुतोऽस्ति च ॥३८८।। अर्थः-समस्त द्वीप समुद्रों में अर्थात २५ कोडाकोहि पल्योपम रोम प्रमाण द्वीप समुद्रों में सबसे बड़ा अन्तिम स्वयम्भूरमग नाम का द्वीप है, यह मध्यलोक के अन्त में अवस्थित है। इस द्वीप के बहिर्भाग में स्वयम्भूरमण द्वीप को वेष्टित किये हुए असंख्यात योजन वाला स्वयम्भरमण समुद्र है, इसका सूची व्यास एक राजू प्रमाण है ।।३८७-३८८॥
अब नागेन्द्र पर्वत, नियंग्लोक के अन्त में अवस्थित कर्मभूमि और उसमें रहने वाले तिर्यञ्चों का कथन करते हैं : -
स्वयम्भूरमणद्वीपस्याऽस्ति वलयाकृतिः। श्रीप्रभात्यो महान शैलो भोग भूमिधराङ्गतः ॥३८६।। ततोऽचलादबहिर्भागे द्वीपाधै सकलेऽम्बुधौ । वर्तते कर्मपथ्येका चतुर्गतिकराङ्गिनाम् ।।३६०॥ पत्रोऽत्र सन्ति तिर्यञ्चः करा व्रतादिदूरगाः ।
संयतासंयताः केचित्पशवो सततत्पराः ।।३६१॥ अर्थ:--अर्घस्वयम्भूरमण द्वीप में अर्थात् स्वयम्भूरमण समुद्र के मध्य में, भोगभूमि को धरा से युक्त अर्थात् भोगभूमि में बलय के प्राकार को धारण करने वाला श्रीप्रभ (नागेन्द्र) नाम का महान् पर्वत है ॥३८६।। इस श्रीप्रभ नामक पर्वत के बाहर अर्ध स्वयम्भूरमण द्वीप और सम्पूर्ण स्वयम्भूरमण