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________________ ३४८ ] सिद्धान्तसार दोपक मध्य में असल नाम का मेरु पर्वत स्थित है, उसका सम्पूर्ण वर्णन इसी विजय मेरु पर्वत के सदृश हो जानना चाहिए। अब भद्रशाल वन, गजरन्त और देवकुरु उत्तर कुरु का आयाम एवं सूची-व्यास तथा परिधि आदि का वर्णन करते हैं :--- मेरोः प्राक् पश्चिमदिगाविते जिनेन्द्रचैत्यालयाद्यलंकृते एफलक्षसप्तसहस्राष्टशतकोनाशीतियोजनायामे पंचविंशत्याद्वादशशसयोजनविस्तीर्णे पूर्वापर भद्रशालाह्वये द्वे बने भवतः । अत्रय मेरो युनैऋत्यविदिगाश्रिती विलक्षषट्पंचाशत् सहस्रतिशतसप्तविंशतियोजनायामी प्रागुक्तकूटचैत्यालयवनवेद्याद्यलंकृतो गन्धमादनविद्य प्रभाख्यो द्वौ लघुगजदम्तपर्वती स्यातां । ईशानाग्नेयविदिक् स्थिती पंचलःकोनसा तिसहस्रतिशतकोनषष्ट्रियोजनायामौ । माल्यबत्सौमनसाह्वयो द्वौ वृहद्गजदन्ताचलो भवत: । देवकुरूत्तरकुरुभोगभूम्योः प्रत्येक कुलाचलसमीपे विष्कम्भः द्विलक्षत्रयोविंशतिसहस्रकाशता पंचाशयोजनानि, कुलाबलात् मेरुपर्यन्तं वक्रायामः त्रिलक्षसप्तनवतिसहस्राष्टशतसमनवति योजनानि, योजनस्य द्विशतद्वादशभागानां द्विनवतिभागाश्च । कुरूणामुभवान्तयोः ऋज्वायामः त्रिलक्षपक्षष्टिसहस्त्र पताशातियोजनानि । पूर्वापरमों: पूर्वाप रभद्र शालान्तयोश्चान्तराले जम्बूद्वीपलबएस मुद्रादिसहिते सूत्री एकादश लक्षपंचविंशतिसहस्र कशताष्टपंचाशयोजनानि । सूच्याः परिधिः पञ्चनिशल्लक्षाष्टाचाशत्सहस्रविष्टियोजनानि । पूर्वापर मेर्वो:, पूर्वापर सर्वभद्रशालवनाभ्यां बिनान्तराले सुचो पहलक्ष चतुः सप्ततिसहस्राष्टशत द्विचत्वारिंशद्योजनानि । ततसूच्याः परिधिः एकविंशतिलाचतुस्त्रिशत् सहस्राष्टत्रिंशद्योजनानि । मेरुपूर्वायर भद्रशालदेयारण्य भूतारण्यवनैविमा, पूर्वारविदेहयोः प्रत्येक व्यासः एकाशीतिसहस्रपंचशतसारसमति योजनानि । अर्थ –धातकीखण्डस्य मेरु पर्वत को पूर्व और पश्चिम दिशा में मेरु के मूल अर्थात् पृथ्वीतल पर जिन चैत्यालयों प्रादि से अलंकृत, १०७८७६ योजन लम्बे और १२२५ योजन चौड़े पूर्वभद्रशाल एवं पश्चिम भदशाल नाम के दो बन हैं। इसी पश्चिम भद्रशाल वन में मेह को वायव्य एवं नैऋत्य विदिशामों में कम से ३५६२२७ योजन लम्बे और पूर्व में कहे हुए कूटों, जिन चैत्यालयों एवं वन वेदी आदि से अलंकृत गन्धमादन तथा विद्युत्प्रभ नाम के दो दो लघु गजदन्त पर्वत हैं। पूर्व भद्रशाल वन में इसी मेरु की ऐशान और आग्नेय विदिशानों में ५६६२५६ योजन लम्बे माल्बवान् और सौमनस नाम के वो वृहद् गजदन्त पर्वत हैं। धातकीखण्डस्य देव कुरु उत्तरकुरु दोनों भोगभूमियों का विष्कम्भ कुलाचलों के समीप २२३१५८ योजन है । अर्थात देवकुरु उत्तरकुरु ( प्रत्येक ) को जोवा २२३१५८ योजन है । कुलाचलों से मेरु पर्यन्त का वक्र आयाम ( घनु:पृष्ठ ) ३६७६६७,१३३ योजन है । अर्थात् प्रत्येक कुरुक्षेत्र का धनुःपृष्ठ ३९७८६७५३ योजन प्रमाण है। दोनों कुरुक्षेत्रों में प्रत्येक क्षेत्र के अन्त से ऋजु अायाम अर्थात् कुरुक्षेत्र का ऋजुवाग ३६६६८० योजन प्रमाण है । पूर्व
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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