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________________ aratsaकार: [ ३४६ 1 पश्चिम मेत्रों के पूर्व-पश्चिम भद्रवाल वनों के अन्त तक ( पूर्वमेरु के पूर्व भद्रशाल बन के अन्त से पश्चिममेरु के पश्चिम भद्रशाल के वन के अन्त तक अर्थात् पूर्वघातकी खण्ड के ३१२५७६ योजन + लवण समुद्र २००००० यो० + जम्बूद्वीप १००००० यो० + लवण समुद्र २००००० यो० पश्चिम बात की खण्ड के ३१२५७६ यो० - ११२५१५८ यो० ) के अन्तराल का ( बाह्य ) सूत्रीव्यास जम्बूद्रीप लवणसमुद्र आदि सहित ११२५९५८ योजन है । तथा इस सूचो व्यास की परिधि ३५५८०६२ योजन प्रमाण है । पूर्व-पश्चिम मेश्रों के पूर्व-पश्चिम भद्रशाल वनों के बिना, अन्तराल का (अभ्यंतर ) सूची व्यास का प्रमाण ६७४ - ४२ योजन ( पूर्वघातकीखण्ड के देवारण्य व विदेह क्षेत्र का प्रमाण ५८४४ +८१५७७८७४२१ यो० + जम्बू, लवण स० के ५०००००+ पश्चिमविदेह के ८७४२१ यो० = ६७४८४२ यो० ) है, और उस सूचो व्यास की परिधि २१३४०३८ योजन प्रमाण है । ( त्रि० स० गाथा ६३० ) मेरु पर्वत पूर्व-पश्चिम भद्रशाल वन और देवारण्य भूतारण्य बनों के व्यास बिना पूर्वपश्चिम दोनों विदेहों में प्रत्येक विदेह का व्यास ८१५७७ योजन प्रभाग है। : अब धातकी वृक्षों की अवस्थिति, विदेहक्षेत्र के विभाग एवं नाम कहते हैं अत्र द्वौ धातकीवृक्षौ जम्बुशाल्मलि सनिभौ । उच्चायामादिभिः स्यातां जिनालयाद्यलंकृतौ ॥ १५१ ॥ मेरो पूर्वदिशाभागे विदेहपूर्वसंज्ञकः । विभक्तः सीतया द्वेषा दक्षिणोत्तरनामभाक् ।। १५२ ।। मेरोः पश्चिमदिग्भागे स्याद् विदेहोऽपराह्नयः । दक्षिणोत्तरनामाढ्य सोतोदया द्विधा कृतः ॥ १५३ ॥ अर्थ :- जम्बू शाल्मलि वृक्षों की ऊँचाई एवं आयाम प्रादि से युक्त धातकीखण्ड में दो मेरु सम्बन्धी दो दो घातकी ( बहेड़ा) के वृक्ष अवस्थित हैं, जो जिनालय आदि से अलंकृत हैं ।। १५१॥ मेरु की पूर्व दिशा में पूर्व विदेह नाम का क्षेत्र है, जो सीतामहानदी के नाम से दक्षिण विदेह और उत्तर विदेह के नाम से दो भागों में विभक्त किया गया है। इसी प्रकार मेरु को पश्चिम दिशा में पश्चिम विदेह है, जो सीतोदा के द्वारा उत्तर दक्षिण नाम से दो भागों में विभक्त किया गया है ।। १५२-१५३ ।। अब देशों के खण्ड एवं कच्छादि देशों का विस्तार प्रादि कहते हैं :-- प्रागुक्तनामानो द्वात्रिंशद् विषया मताः । विजयार्थ द्विनदोभ्यां षट्खण्डान्वितभूतला ।। १५४ ।। पूर्वस्मान्मन्वरात् पूर्वः कच्छाख्यो विषयो महान् । अपरावपरोन्त्यश्च देशः स्याद् गन्धमालिनी ।। १५५ ।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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