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________________ दशमोऽधिकारः [ ३४७ तत्रास्य ब्राह्म विष्कम्भ: त्रिसहस्राष्टशतयोजनानि । बाह्यपरिधिः द्वादशसहस्रकिञ्चिदुनसप्तदश योजनानि । अभ्यन्तरव्यासः द्विसहस्राष्टशतयोजनानि । अभ्यन्तरपरिधिः प्रष्टसहस्राष्टशतचतुःपञ्चाशधोजनानि । ततोऽस्यैव मे रोहवं अष्टाविंशति सहनयोजनानि बिहाय मूनि चतुर्नबतियुतचतुःशतयोजनव्यासं जिनालयपाण्डुक शिलादि भूषितं पाण्डुकबनमस्ति । तेषामष्टाविंशतिसहस्रयोजनानां, मध्ये दशसहस्रयोजन पर्यन्तं मेरुः ऋजुविष्कम्भो भवेत्। ततोऽष्टादशसहस्र योजनान्तं क्रमहीयमानह्रस्वश्च । तत्रास्य सहनयोजनविस्तीर्णस्य मेरोमनि परिधिः त्रिसहस्र कशतद्विषष्टियोजनानि साधिक: क्रोशश्च । अत्र मेरो अन्ये चैत्याल पत्रगृहवापीकूटन्चूलिकादय: उत्सेध-व्यासावगाहादि वर्णन: जम्बूद्वीपस्थ महामेरोः समाना भवन्ति । ईबिधवर्णनोपेतो परमेहरपि पश्चिमधातकीखण्ड विदेहस्य मध्ये ज्ञातव्यः । मर्श:-इस विजयमेरु पर्वत का मूल में अर्थात् चित्रा पृथ्वी के तल (निचले) भाग पर (जड़) विस्तार ६५०० योजन है, और इस कन्द विष्कम्भ की परिधि कुछ कम ३०० ४२ योजन प्रमाण है। भूतल पर अर्थात् पृथ्वीतल (चित्रा पृथ्वी के उपरले भाग) पर विजयमेरु का व्यास १४०० योजन तथा परिधि २६७५५ योजन प्रमाण है । पृथ्वीतल से ५०० योजन ऊपर जाकर विजयमेरु की प्रथम मेखला ( कटनी ) पर सुदर्शन मेरु को प्रथम मेखला के वर्णन के सा ५०० योजन विस्तृत, चार चैत्यालयों पादि से अलंकृत और अनेक प्रकार के वृक्षों से युक्त शाश्वत नन्दन नाम का बन है। उस नन्दन वन सहित विजयमेरु का बाह्य विस्तार ६३५० योजन और इसकी बाह्यपरिधि २६५६७ योजन प्रमाण है। नन्दनवन के व्यास रहित मेरु का अभ्यन्तर व्यास ८३५० योजन एवं इसो व्यास को अभ्यन्तर परिधि २६४०५ योजन प्रमाण है। इस नन्दनवन से ५५५०० योजन ऊपर जाकर मेरु को दूसरी मेवला है, जिस पर चार जिन' चैत्यालय, वापियाँ एवं देवों के प्रासादों आदि से विभूषित ५०० योजन विस्तृत सौमनस नामका वन है। इस ५५५०० योजना के मध्य मेरु १०००० योजन पर्यन्त समझन्द्र अर्थात् समान चौड़ाई से युक्त है, इसके बाद ४५५०० योजन पर्यन्त क्रमशः हीन होता गया है । यहाँ का अर्थात् सौमनस वन के वाह्यव्यास का प्रमाण ३५०० योजन और इसकी बाह्यपरिधि का प्रमाण कुछ कम १२०१७ योजन है । सौमनस बन का अभ्यन्तर व्यास २८०० योजन और प्रभ्यन्तर व्यास' की परिधि ८८५४ योजन प्रमाण है । इस गौमनस बन से २८००० योजन ऊपर जाकर चार जिनालयों एवं पाण्डुक प्रादि शिलानों से युक्त ४६४ योजन विस्तृत पादुक नाम का वन है । इन २८००० योजनों के मध्य १०००० योजन पर्यन्त मेरु का विष्कम्भ बिल्कुल सीधा है । अर्थात् चौड़ाई समान है। इसके ऊपर १८००० योजनों पर्यन्त विका क्रमाः हीन होता गया है। पांडुक वन का बाह्यविष्कम्भ १००० योगन और मेरु के ऊपर परिधि ३१६२ योजन और कुछ अधिक एक कोस प्रमाण है। यहाँ मेरु पर्वत के ऊपर चार जिन चैत्यालय, देवगृह, वापी, कूट एवं चूलिका आदि हैं, इन सत्र के उत्सेध, व्यास और अवगाह आदि का वर्णन जम्बूद्वीपस्थ महाभेरु के सहश ही जानना चाहिए। इसी प्रकार धातकीखण्ड स्थित पश्चिम विदेह क्षेत्र के
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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