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________________ १५४ ] सिद्धान्तसार दीपक हैं । प्रत्येक नाभि पर्वतों के शिखर पर व्यन्तरदेवों के वन वेदी से बेष्टित, उत्तम तोरणों से युक्त, अत्यन्त रमणीक एवं शाश्वत नगर हैं, जो जिन चैत्यालयों से अलंकृत और सात तल ऊँचे श्रेष्ट भवनों से युक्त हैं । हैमवत् क्षेत्र के मध्य में प्रथम शब्दवान् नाम का नाभिपर्वत स्थित है। उस शब्दवान् नाभिपर्वत के शिस्त्र र पर स्थित नगर का राजा ( हजारों) देवों से पूजित और एक पल्य को उत्कृष्ट मायु वाला स्वाति नाम का देव है ।। १३०-१३४॥ हरिक्षेत्र के मध्य में विकृति (बिजटा) वान् नाभिगिरि अवस्थित है, जिसके शिखर पर स्थित नगर का राजा अरुणप्रभ नाम का श्रेय देव है। रम्यक क्षेत्र के मध्य में गन्धवान् नाम का नाभिगिरि पर्वत है, जिसके शिखर पर स्थित नगर का राजा पद्मप्रभ नाम का देव है। इस प्रकार र पा लेग य में सित माल्यवान नाभिगिरि है जिसके शिखर पर स्थित नगर का स्वामी प्रभास नाम का अद्भुत बलशालो देव है ।।१३५-१३७।।। महाहिमवान् पर्वत के बाद जो हरि नाम का तृतीय क्षेत्र है, उसमें शाश्वत मध्यम भोग भूमि है और उसकी भूमि निरन्तर कल्पवृक्षों को आश्रय देतो है। मर्यात् कल्पवृक्षों से व्याप्त रहती है ।। १३८॥ विशेषार्थ:-जम्बूद्वीप में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत नाम के सात क्षेत्र हैं, जिनमें भरतरावत क्षेत्रों के मध्य में विजया (नाभिगिरि) पर्वत स्थित हैं और इन दोनों क्षेत्रों के प्रार्यखण्डों में काल परिवर्तन के निमित्त से अस्थिर भोगभूमियों की और कर्म भूमि की रचना होती रहती है । म्लेच्छखण्ड शाश्वत रहते हैं। हैमवत और हैरण्यवत इन दो क्षेत्रों के मध्य में क्रमश: शब्दवान् और माल्यवान् नाभिगिरि अवस्थित हैं, तथा इन क्षेत्रों में शाश्वत जघन्य भोगभूमि की रचना है । हरि और रम्यक इन दो क्षेत्रों के मध्य में कम से विकृतिवान् और गन्धवान् नाभिगिरि अवस्थित हैं, तथा इनमें शाश्वत मध्यम भोगभूमि की रचना है। विदेह क्षेत्र के मध्य में सुदर्शन मेरु नाभिगिरि अवस्थित है। इस क्षेत्र में देव कुरु, उत्तरकुरु, नाम की शाश्वत उत्तम भोगभूमियों के साथ साथ अन्य ३२ विदेह शाश्वत कर्मभुमि की रचना से युक्त हैं । विदेह क्षेत्र का सम्पूर्ण वर्णन अागे छठवें अधिकार में किया जा रहा है। अब इस अधिकार का संकोच करते हैं :--- एते सद्भरतादयोत्र विधिना वर्षास्त्रयो वरिणताः, व्यासाचैश्च यथा तथा बुधजन रैरायताद्यास्त्रयः । शेयाः कर्मसुभोगभूमिकलिता आर्येतरार्धश्रिताः, पुण्यापुण्यफलप्रदाबहुविधाः सर्वज्ञदग् गोचराः ॥१३॥ अर्थः--इसप्रकार सर्वज्ञप्रभु के ज्ञानगोचर होने वाले भरत आदि तीन क्षेत्रों के व्यास प्रादि का उपर्युक्त विधि के अनुसार जैसा वर्णन किया है वैसा ही ज्ञानीजनों के द्वारा ऐरावत आदि तीन क्षेत्रों का भी जान लेना चाहिये। अनेक प्रकार के पुण्य और पाप के फल को प्रदान करने वाली ये कर्मभूमियाँ एवं भोगभुपियाँ पार्य जनों से एक अन्य जनों से निरन्तर ध्यान रहती हैं ॥१३६॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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