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________________ सिद्धान्तसार दीपक स्थित होते हैं। इन वृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में जिनेन्द्र भगवान की चार चार तोरण द्वारों से युक्त, देदीप्यमान और दिव्य पृथक् पृथक् चार प्रतिमाएँ हैं। तथा एक एक प्रतिमा के प्रति मुक्तादामों एवं मणिमय घण्टानों से युक्त, मणिमय तीन तीन पीठ और प्राकार से युक्त एक एक मानस्तम्भ है ।।५७-५॥ अब नगरों की चारों दिशाओं में स्थित बनों एवं विदिशाओं में स्थित नगरों का कथन करते हैं : पुराणां च चतुर्विन त्यक्त्वा च सहस्रके । योजनानां हि चत्वारि वनानि शाश्वतान्यपि ॥६॥ लक्षयोजनदीर्घाणि लक्षार्धविस्तृतानि छ । अशोकसप्तपर्णाम्र-चम्पकाढयानि सन्ति च ।।६२॥ मध्येऽमीषां हि चत्वारो राजन्ते चैत्यपादपाः ।। प्रशोक-सप्तपर्णाम्र-चम्पकाल्या जिनार्चनेः ॥६३॥ विदिक्ष नगराणा स्युर्गणिकानां पुराणि च । सहस्त्रचतुरशीतियोजनविस्तृतानि वै ॥६४॥ वृत्ताकाराणि नित्यानि प्राकारादियुतान्यपि । पुराणि शेष भौमानामनेफद्वीपवार्षिषु ।।६।। अर्थ:-नगरों की चारों दिशाओं में दो-दो हजार योजन छोड़कर अशोक, सरपर्ण, प्राम पौर चम्पक नाम के चार चार शाश्वत वन हैं, जो एक एक लाख योजन लम्बे तथा पचास-पचास हजार योजन चौड़े हैं। इन वनों के मध्य में जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं से युक्त अशोक, सप्तपर्ण पान और चम्पक नाम के चार-चार चैत्य वृक्ष शोभायमान होते हैं ॥६१-६३॥ नगरों को चारों विदिशापों में गणिकाओं के वलयाकार, शाश्वत और प्राकार प्रादि से युक्त नगर हैं, जो ८४००० योजन लम्बे और ८४००० योजन ही चौड़े हैं। शेष ध्यन्तर देवों के नगर अनेक द्वीपों एवं अनेक समुद्रों में हैं ॥६४-६शा अब किन्नर प्रावि सोलह इन्द्रों की ३२ गणिका महत्तरों के नाम कहते हैं : इन्द्रप्रति विमे स्तो महत्तरिके सुराङ्गने । गणिकासंज्ञिके वे द्वे पृथक पन्यकजीविते ॥६६॥ माधुरी मधुरालापा देवी घ मधुरस्वरा । पुरुषादिप्रियाल्या पृथका सोमाया ततः ॥६॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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