SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अधिकार सा मया बिजगदभव्यन्यिा वन्द्या स्तुता सका। शारदाऽर्हन्मुखोत्पन्नात्रास्तु विश्वार्थदशिनी ॥३०॥ अर्थ:-जिसकी कृपा से मेरी बुद्धि व तज्ञान से विभूषित हुई, रामद्वष आदि से रहित हुई, पदार्थों के स्वरूप को जानने एवं समझने में समर्थ हुई और निर्दोष ग्रन्थों की रचना करने में पटु हुई तथा जिसकी प्रतिष्ठा नीटों जगत के भगामीनों ने की है ऐसो बह जिनेन्द्रमुख से निर्गत हुई भारतीशारदा मेरे द्वारा सदा वन्दनीय एवं स्तवनीय है । वह मुझे इस अन्य के निर्माण कार्य में एवं पूर्ण रूपसे अर्थ के प्रदर्शन करने में सहायक होवे ॥२६-३०|| आगे रत्नत्रय से विभूषित कुन्दकुन्दादि प्राचार्यों का स्मरण करते हैं--- अन्ये ये गुरवो ज्येष्ठा दृक्-चित्-वृत्तादिसद्गुणैः । सर्वसिद्धांतवेतारः कुदकुवादिसूरयः ॥३१॥ बाह्यान्तर्गन्थनिर्मुक्ता युक्ताः सद्गुणमूतिभिः । कवयो बन्दनीयाश्च सतां मे सन्तु शुद्धये ॥३२॥ अर्थ:-सर्व सिद्धांत के ज्ञाता, बाह्य और अंतरंग परिग्रह से सर्वथा रहित, उत्तम-क्षमा आदि सद्गुणों से विभूषित, उत्तमोत्तम निर्दोष काव्यों की रचना करने में समर्थ मति वाले एवं सज्जनों द्वारा वेदनीय ऐसे कुदकुदादि आचार्यवर्य तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र आदि सद्गुणों से विभूषित अन्य गुरूजन मुझे आत्मशुद्धि में निमित्त भूत बनें ॥३१-३२।।। __ अब त्रिलोकवी कृत्रिम-प्रकृत्रिम चैत्यालय तथा उनमें विद्यमान जिनप्रतिमानों की स्तुति करते हैं लोक्यसौधमध्ये ये कृत्रिमाः श्रीजिनालयाः। प्रकृत्रिमा जिनेन्द्राणां प्रतिमाः कृत्रिमेतराः ॥३३॥ या हेम-रत्न-धात्वश्मा-दि मया यानि सन्ति च । पुण्यनिर्धारणक्षेत्राणि तांस्तास्तानि स्तुवेऽर्चये ॥३४॥ अर्थः-तीन लोक रूपी भवन के बीच में जो कृत्रिम प्रकृत्रिम श्री जिनालय हैं तथा उनमें जो हेम, रत्न, धातु एवं पाषाण प्रादि को बनी हुई कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाएँ हैं एवं जो पवित्र निर्वाण क्षेत्र हैं मैं उन सबकी स्तुति करता हूँ और पूजा करता हूं ।।३३-३४॥ इस प्रकार मंगलाचरण कर ग्रथकर्ता सिद्धान्तसार दीपक ग्रंथ के करने की प्रतिज्ञा करते हैं
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy