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________________ षष्ठोऽधिकारः [ १७३ दिशात्रों को बहरी करते हुये तथा ध्वजा, छत्र, चामर और विमान आदि के साथ ग्राकाशतल को व्यात करते हुये स्वर्ग से उस नगर में प्राते हैं, जहाँ तीर्थङ्कर की उत्पत्ति होती है। अब बालतीर्थङ्कर के जन्माभिषेक आदि की समस्त प्रक्रिया का सविस्तार वर्णन करते हैं: कोन्द्राण प्रचार अनिल गानुरको पाई मायाशिशु निधाय तीर्थेशं प्रणम्यादाय गुढ़वृत्त्यामोय सौधर्मेन्द्रस्य करे ददाति । सोपितं तीर्थङ्करं मुदाप्रगम्यस्तुत्वामहोत्सवेन मेरुमानीयपरीत्य पाण्डुकशिलास्थ मसिहासने धत्ते । ततः क्षीराब्धेः क्षीराम्बुभतः अष्टयोजनगम्भीरैर्योजनकमुखविस्तृत मुक्तादामाम्भोजचन्दना'चलंकृतरष्टोलरसहस्रः, कनत्काञ्चनकलशेर्गीतनृत्यभ्र पोरक्षेपादि ध्र क्षेपादि] महोत्सवशतः, परया भक्त्या विभूत्या च नाकेन्द्राः सम्भूय जिनेन्द्र स्नपयन्ति । यदि चेत्ता महत्योजलधारा यस्याद्रपरि पतन्ति सोऽद्रिस्तत्क्षरणं शतखण्डतां याति । अप्रमाणमहावीर्यः परमेश्वरस्तद्धारापतनं जलविन्दुवन्मन्यते । इतिध्वनद्वाद्यशतर्जयजयादि निर्घोष : शुद्धाम्बुस्नपनं सम्पूर्ण विधा. यान्ते सुगन्धिद्रव्य मिश्रित! गन्धोदक कुम्भगन्धोदकस्नपनं शका अस्थ कुर्वन्ति । ततस्तगन्धोदकमभिवन्द्य दिव्यगन्धादिभिः स्वर्गापनीत महापूजाद्रव्य जिनं प्रपूज्योत्तमांगेनदेवेन्द्रा इन्द्राणोदेवादिभिः सहोच्चैः प्रणमन्ति । पुनः शची नानासुगन्धद्रव्यदिव्यांशुक शाश्वत मणिने ध्येस्तोर्णेशस्य महत्मण्डनं करोति, तदा सौधर्मेन्द्रो जगद्गुरोर्महारूप सम्पदोदीक्ष्य तृप्तिमप्राप्य पुन:क्षितु सहस्रनयनानि विदधाति । तत: परमानन्देन परमेश्वरं स्तुतिशतैः स्तुत्वा तत्पुरं नीत्वा पित्रो समप्यं तत्रानन्दमाटकं कृत्वा परं पुण्यमुपाज्यं चतुरिणकाय देवेशाः स्वस्वस्थानं गच्छन्ति । ___ अर्थ:-प्रभु के जन्म नगर में प्राकर इन्द्राणी प्रसूतिगृह में प्रवेश करके माता के समीप जाकर सर्व प्रथम बाल तीर्थङ्कर को प्रणाम करती है, और उसी समय माता के समीप मायामयी बालक रख कर भगवान को उठाकर तथा गढ़ वत्ति से लाकर सौधर्म इन्द्र के हाथों में दे देती है। वह इन्द्र भी उन तोङ्कर प्रभु को प्रसन्नता पूर्वक प्रणाम करके एवं स्तुति करके महामहोत्सव के साथ मेरु पर्वत पर लाकर और मेरु की तीन प्रदक्षिणा देकर पाण्डुक शिला पर स्थित मध्य के सिंहासन पर प्रभु को विराजमान कर देता है । इसके बाद क्षीरसागर के क्षीर सदृश जल से भरे हुये आठ योजन (६४ मोल) गहरे, एक योजन (८ मोल) मुख विस्तार वाले, मोतियों की माला, कमल एवं चन्दन आदि से अलंकृत, अत्यन्त शोभायमान स्वर्ण के एक हजार पाठ कलशों के द्वारा, गीत, नृत्य एवं भ्र उपक्षेपण |भ्र क्षेपण आदि सैकड़ों महा उत्सवों के साथ, उत्कृष्ट भक्ति एवं परम विभूति से सभी इन्द्र एकत्रित होकर जिनेन्द्र भगवान को स्नान कराते हैं। भगवान् के ऊपर गिरने वाली वह महान् जल की धारा यदि १. चन्दनाय र.लंकृत अ. ज..
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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