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________________ १७४ ] सिद्धान्तसार दीपक कहीं उस पर्वत के ऊपर गिर जाय तो उस पर्वत के उसी क्षण सो खण्ड हो जाय, किन्तु अपरिमित महावीर्य को धारण करने वाले बाल जिनेन्द्र उन धाराओं के पतन को जलविन्दु के समान मानते हैं। इस प्रकार शब्द करते हये सैंकड़ों वादियों और जय जय आदि शब्दों के द्वारा शुद्ध जल का अभिषेक समार करके अन्त में इन्द्र सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित, सुगन्धित जल से भरे हुये घड़ों के द्वारा सुगन्धित जल से अभिषेक करता है । पश्चात् उस गन्धोदक की अभिवन्दना करके महापूजा के लिये स्वर्ग से लाये हये दिव्य गन्ध आदि थ्यों के द्वारा बाल जिनेन्द्र की पूजा करके इन्द्र अपनी इन्द्राणी एवं अन्य देवों के साथ उत्साह पूर्वक प्रणाम करते हैं । इसके बाद शचो अनेक प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से, दिव्य वस्त्रों से और मरिणयों के आभूषणों से तीर्थेश का महान शृङ्गार करती है। उस समय सौधर्म इन्द्र जगद्गुरु की महारून वरूप समागो कात नहीं होता और पुन: पुनः देखने के लिये एक हजार नेत्र बनाता है । ततः उत्कृष्ट प्रानन्द से युक्त होता हुया भगवान की सैकड़ों स्तुतियां करता है। अर्थात् सहस्रों प्रकार से भगवान की स्तुति करता है । इसके बाद नगर में लाकर पिता को सौंप देता है, पश्चात् पितृगृह के प्राङ्गण में प्रानन्द नाम का नाटक करके, तथा उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करके इन्द्र एवं चतुनिकाय के देव अपने अपने स्थानों को वापिस चले जाते हैं । प्रब भद्रशाल वन में स्थित जिनालयों के प्रमाण का वर्णन करते हैं:--- मथ मेरोश्चतुविक्षु भवशालवनस्थितान् । वर्णयामि मदोत्कृष्टाश्चतुरः श्रीजिनालयान् । अद् पूर्वदिशाभागे योजनशतायतः।। पञ्चाशद् विस्तृतस्तुङ्गः पञ्चसप्ततियोजनः ॥७॥ कोशद्यावगाहाच विचित्रमणिचित्रितः। प्रभुतः स्याज्जिनागारस्त्रैलोक्यत्तिलकाहपः ॥६॥ अर्थ:-सुमेरुपर्वत को चारों दिशाओं में भद्रशाल वन है जिसमें उत्कृष्ट चार जिनालय हैं, अब मैं (प्राचार्य) उन जिनालयों का प्रसन्नता पूर्वक वर्णन करता हूँ। ६।। सुदर्शन मेरु की पूर्व दिशा ( भवशाल वन ) में नाना प्रकार की मणियों से रचित लोक्यतिलक नाम का एक अद्भुत जिनालय है, जो सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा, पचहत्तर योजन ऊँचा और अर्ध योजन अवगाह (नीव) वाला है ॥७-८॥ औलोक्यतिलक जिनालय के दरवाजों का वर्णन:-- भस्य पूर्वप्रदेशेऽस्ति चोसरे दक्षिणे महत् । एककमूजितं द्वारं रत्नहेममयं परम् ॥६॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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