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________________ षष्ठोऽधिकारः [ १७५ राजते नितरां द्वारं तयोः पूर्वस्थमादिमम् । प्रष्टयोजन विस्तीर्ण तुङ्ग षोडशयोजनः ॥१०॥ दक्षिणोत्तरदिगभागस्थे द्वे द्वारे परे शुभे । भातोऽष्टयोजनोत्तुङ्ग चतुर्योजन विस्तरे ॥११॥ अर्थ,—इस टीलोक्य तिलक जिनभवन के पूर्व, उत्तर और दक्षिण में रत्न एवं स्वर्णमय एक एक उत्कृष्ट द्वार हैं । उत्तर-दक्षिण दोनों द्वारों के मध्य पूर्व दिशा में स्थित प्रथम द्वार अत्यन्त शोभायमान है, जिसकी ऊँचाई सोलह योजन और चौड़ाई पाठ योजन प्रमाण है। जिनालय को दक्षिणोत्तर दिशा में जो एक एक द्वार सुशोभित हैं, उनकी ऊँचाई पाठ योजन और चौड़ाई चार योजन प्रमाण है ॥६-११॥ अब जिनालय के अभ्यन्तर एवं बाह्य मागों में स्थित मालाओं, धूपघटों एवं स्वर्ण घटों का प्रमाण आदि कहते हैं: भवनस्यास्य चाभ्यन्तरे पूर्वे विस्फुरन्त्यलम् । विचित्रामणिमालाश्चाष्टसहस्रारिपलम्बिताः ॥१२।। तासामन्तरभागेषु चतुविशतिसम्मिताः । सहस्राणां विराजन्ते माला रत्नांशुसञ्चयः ॥१३ । चतुविशसहस्राणि दिया धूपघटाः शुभाः। सुगन्धि द्रव्य धूपः स्युः सुगन्धीकृतदिग्मुखाः ॥१४।। स्पात्रिंशत्सहस्राणि कलशा भानुतेजसः ।। सुगन्धिदामराशीनां सन्मुखा मरिगहेमजाः ॥१५॥ तबहिर्भागदेशेषु मणिमालाः प्रलम्धिताः । चत्वारि च सहस्राणि सन्ति दीप्ता मनोहराः ॥१६॥ द्वादशवसहस्राणि स्युः काञ्चनस्रजोऽमलाः । तस्मिन्नेव बहिर्भागे दिव्याधूपघटाः स्मृताः ॥१७॥ द्विषट्सहस्रसंख्याताः सहस्रषोडशप्रमाः। वीप्ताः काञ्चनकुम्भाश्च स्फुरन्तिस्वाङ्गरश्मिभिः ॥१८॥ १. दीप्रा: प्र. ज. न.
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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