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________________ नवमोऽधिकार: [ २७१ प्रथम (बर्षभवचनाराच) संहनन और प्रथम समचतुरस्त्र संस्थान से युक्त, दिव्य रूप सम्पन्न, मन्दकषायो एवं समान भोग उपभोग वाले होते हैं। वे स्वभावतः सुन्दर आकार वाले, स्वभावतः सौम्य मूर्ति, स्वभावतः मधुर भाषी और स्वभावतः अनेक गुण विभूषित होते हैं ॥३४-३५।। दाता और पात्रदान के भेद से फल में भेव होता है, यह बताते हैं :--- हाथों विस्वभावारले सत्पात्रवानपुण्यतः । दशयाकल्पवृक्षोत्थान भोगान् भुञ्जन्त्यहनिशम् ॥३६॥ भद्रकाः पात्रदानेन केचि दानानुमोदतः । स्त्रीनरा चात्र तिर्यञ्चो जायन्ते भोगभागिनः ॥३७॥ अवता दृष्टिहीनाश्च कुपात्रदानतो मृगाः । उत्पद्यन्तेऽपशर्माणो युग्मरूपेण भद्रकाः ॥३८॥ अर्थ:--सत्पात्रदान के पुण्य से जीव भोग भूमि में आर्य और प्रार्या भाव से उत्पन्न होकर प्रहनिश दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न भौगों को भोगते हैं ।।३६।। कुटिलता रहित भद्र परिणामी कोई जीव पात्रदान के फल से और कोई दान की अनुमोदना से वहाँ पर भोग भोगने वाले स्त्री, पुरूष और तिर्यञ्च होते हैं ।। ३७॥ व्रत रहित और सम्यक्त्व रहित कोई जीव कुपात्रों को दान देते हैं, और उसके फल स्वरूप भोगभूमि में अल्पसुत्र से युक्त, युगल रूप से भद्र परिणामी मग प्रादि पर्यायों में उत्पन्न होते हैं ॥३८॥ प्रब भोगभूमिज जोधों के मरण का कारण और प्राप्त होने वाली गति कहते हैं: प्रायुषोऽन्ते विमुच्यासून् क्षुता जुम्भकया ततः । प्रार्याः स्त्रियो दिवं यान्त्यार्जव मावेन नान्यथा ॥३६॥ अर्थ:-प्रायु के अन्त में पुरुष और स्त्री क्रमश: छोंक एवं जम्भाई के द्वारा प्राणों को मोड कर पार्जव { सरल ) भात्रों के कारण स्वर्ग हो जाते हैं, अन्य गतियों में नहीं जाते ॥३६॥ अब द्वितीय और तृतीय कालों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं :-- ततः कालो द्वितीयोऽस्ति सुषमाख्यः सुखाद्धितः । त्रिकोटीकोटिवाराशिप्रमो मध्यमभोगकृत् ।।४०॥ तस्यादौ पूर्णचन्द्राभा द्विकोशोमध सुविग्रहाः । द्विपल्पाखण्डितायुका प्रक्षमानॉनभोजिनः ।।४।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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