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________________ २७२ ] सिद्धान्तसार दीपक दिनद्वये गते मध्यमपात्रदानजाच्छमात् । भोगान् दशविधानार्या भजन्ति कल्पवृक्षजान् ॥४२॥ अन्यत्सर्व समान स्यादत्राद्यकालवर्तनः । ततस्तृतीयकालोऽस्ति सुषमादुःषमाभिधः ॥४३॥ जघन्यभोगमयुक्त प्राधसौख्यान्तदुःखधत् । द्विकोटीकोटिपूर्णाधिस्थितिः कल्प माश्रितः ॥४४॥ अस्यादौ मानवाः सन्ति पल्यै काखण्डजीविनः । प्रियंगुश्यामवर्णाङ्गाः क्रोशकोन्नतथिग्रहाः ॥४॥ दिनान्तरेण सौख्यायामलकाभान्नभोगिनः । कृत्स्नमन्यत्समानं स्यात्प्रागुक्तकालवर्तनः ।।४६॥ कालत्रयोद्भवार्याणां सहसा स्वायुषः क्षये । दिव्याङ्गानि विलीयन्ते यथाभ्रपटलानि च ॥४७॥ अर्थ :-प्रथमकाल के बाद सुखों से युक्त सुखमा नाम का दूसरा काल पाता है, इसमें मध्यम भोगभूमि की रचना होती है और इसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी (३००००००००००००००) सागरोपम होता है ॥४०॥ द्वितीय काल के प्रारम्भ में मनुष्यों के शरीर की प्रभा पूर्ण चन्द्रमा के सदृश और ऊंचाई दो कोश प्रमाण होती है । ये दो पल्य प्रमाग अम्बण्डित प्रायु से युक्त और दो दिन बाद प्रक्ष (हरड़) फल प्रमाण अन्न का भोजन करने वाले होते हैं। मध्यम पात्रदान से उत्पन्न पुण्य फल के प्रभाव से ये प्रायं दशप्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोगों को भोगते हैं ॥४१-४२।। अन्य और सर्व वर्णन प्रथम काल के वर्तन के सदृश ही होता है । इसके बाद सुखमादुःखमा नाम का वृतीय काल पाता है । इसकी रचना जघन्य भोगभूमि के सदृश होती है और इस काल के प्रारम्भ में सुख तथा अन्त में दुःख होता है । इस काल की स्थिति दो कोटाकोटी ( २००००००००००००००) सागरोपम प्रमाण होती है, तथा इस काल के प्रारम्भ में मनुष्य कल्पवृक्षों के पाश्रय से अखण्डित एक पल्प पर्यन्त जीवित रहते हैं। मनुष्यों के शरीर की प्राभा प्रियंगुमणि सच्श हरित और श्याम वर्ण होती है, ऊँचाई एक कोस प्रमाण होती है। ये एक दिन के अन्तर से सुख प्राप्ति के लिए प्रोवबे के बराबर भोजन करते हैं । इस काल का अन्य और समस्त बर्तन पहिले कहे हुए प्रथम काल के वर्तन के सा ही होता है। ॥४३-४६॥ तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले आर्यों (जीवों) के दिव्य शरीर अपनी अपनी आयु पूर्ण हो जाने पर सहसा अभपटल ( मेघों के समूह के ) सदृश विलीन हो जाते हैं ।।४७।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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