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________________ चतुर्थाधिकार । ११३ और पूर्वाभिमुख हैं अर्थात् सम्पूर्ण महागृहों का मुख पूर्व दिशा की ओर है, तथा अन्य सभी लघु गृहों के मुख महागृहों की ओर हैं । अर्थात् पश्चिम दिशा की ओर हैं ।।१०२-१०३॥ सम्पूर्ण पद्मगृहों में जिनालयों का व्याख्यान करते हैं : विश्वेषु पद्मगेहेषु शाश्वताः श्रीजिनालयाः । अब्जालय प्रमा ज्ञेया देववेयोगणाषिताः ॥१०४।। दिव्याष्ट मङ्गलद्रव्यः प्रातिहार्याष्टभूतिभिः। भासमानाः स्वतेजोभिरत्नास्प्रितिमाभृताः ॥१०॥ अर्थः-सम्पूर्ण पद्म भवनों में देव देवियों के समूह से अचित, दिव्य अष्टमङ्गलद्रव्यों (भृङ्गार, ताल, कलश, ध्वज, सुप्रतीक, श्वेतातपत्र, दर्पण और चामर) और अष्टप्रातिहार्यों से युक्त एवं अपने तेज से देदीप्यमान ऐसे रत्नमय अर्हन्त प्रतिमाओं से समन्वित शाश्वत श्री जिन मन्दिर हैं । इनका प्रमाण पद्यालयों के प्रमाण बराबर ही है। अर्थात् कमलों की जितनी संख्या है, उतने ही (कमलों के ऊपर) भवन हैं और प्रत्येक भवन में एक एक प्रकृत्रिम श्रीजिनालय है अतः कमल भवनों के प्रमाण ही जिनमन्दिरों का प्रमाण है ॥१०४-१०५।। अब उन्हीं कमल भवनों का विशेष व्याख्यान करते हैं: उपपावगृहा रम्या अभिषेकगृहाः शुभाः। मण्डनाल्यगृहा दीप्ताः सभास्थानगृहा बराः ।।१०।। रम्याः क्रीडनसोहा विचित्रा नाटकालयाः । रतिगेहाः परेवोलागृहाः सङ्गीतसद्गृहाः ॥१०७।। विस्फुरन्तो भवन्त्यत्र विचित्रमणिवीप्तिभिः । मृबङ्गतूर्यनादाधै धूपामोदैश्च घासिताः ॥१०८।। न वनस्पतयोनसे निर्मिता व्यन्तरामरैः । पृथ्वी सारमयाः किन्तु नित्याः पद्मावयोऽखिलाः ॥१०॥ सर्वेषां कमलानां चोपरिज्येष्टालयोनताः । स्फुरन्मारिणमया भान्ति प्राकारद्वारतोरणः ॥११०।। अर्थ:--उन उपर्युक्त पद्मभवनों में नाना मणियों के प्रकाशमान किरणों से युक्त दोलागृह, मृदङ्ग एवं नूयं के शब्दों से गम्भीर उत्तम सङ्गीतगृह, धूप को सुगन्ध से वासित सम्भोगग्रह, रमणीक
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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