SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 635
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मङ्गलाचरण: -- षोडशोऽधिकारः Pictur श्रथ सिद्धयजानत्वा त्रिजगन्मूदिघ्नसंस्थितम् । सिद्धक्षेत्रं प्रवक्ष्यामि सतां वन्द्यं तदाप्तये ॥ १॥ - सिद्धों के समूह को नमस्कार कर तीनों लोकों के मस्तक पर स्थित तथा सज्जनों अर्थ:के वन्दनीक सिद्ध क्षेत्र का कथन उरुकी प्राप्ति के हेतु करूंगा ||१|| अब श्रष्टम पृथिवो की अवस्थिति और उसका प्रमाण कहते हैं: सर्वार्थसिद्धितो गत्वाप्यय्वं द्वादशयोजनः । लोषयमस्तके तिष्ठेत् महती वसुधाष्टमी ||२|| दक्षिणोत्तर दीर्घाङ्गा सप्तरज्जुभिरूजिता । पूर्वापरेण रज्ज्येकव्यासा स्थूलाष्टयोजनैः ||३|| अर्थ :- सर्वार्थसिद्धि से बारह योजन ( ४८००० मील) ऊपर जाकर त्रैलोक्य के मस्तक पर ईषत्प्राग्भार नामकी श्रेष्ठ प्रमी पृथ्वी श्रवस्थित है || २ || उस अष्टम पृथिवी की दक्षिणोत्तर लम्बाई सात राजू प्रमाण, पूर्व पश्चिम चौड़ाई एक राजू एवं मोटाई आठ योजन प्रमाण है ||३|| - अब सिद्ध शिला को प्रवस्थिति, माकार एवं उसका प्रमाण प्रावि कहते हैं: तन्मध्ये रजतच्छाया दिव्या मोक्षशिला शुभा । उत्तानगोलकार्धेन समाना दीप्तिशालिनी ॥४॥ क्षेत्रसमवस्ती छत्राकारा विमात्यलम् । मध्येऽष्टयोजन स्थूला कृशान्ते महानित: ।।५।। अर्थ :- ईषत् - प्राग्भार पृथ्वी के ठीक मध्य में रजतमय, दिव्य, सुन्दर, देदीप्यमान और ऊबे रखे हुए गोले के सदृश मोक्षशिला है । यह अत्यन्त प्रभायुक्त त्राकार और मनुष्य लोक के सा
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy