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________________ मोऽधिकारः सीताया उत्तरे भागे विजयार्धस्य दक्षिणे । रक्तारक्तोदयोमध्येऽस्त्यार्यखण्डं शुभाकरम् ॥१४३॥ अन्यानि लेखण्डानि धर्मदूराणि पञ्च हि । धर्मकर्म बहिर्भूतैः म्लेच्छं तानि दुःकुलैः || १४४ ॥ अर्थ :- विजयार्थं पति और रक्ता-रक्तोदा इन दो नदियों से कच्छा देश के छह खण्ड होते हैं, उनमें से एक प्रार्य और पांच म्लेच्छ खरड हैं । सीतानदी के उत्तर में विजया के दक्षिण में और रक्ता रक्तोदा के मध्य में अत्यन्त शुभ चेष्टाओं से युक्त प्रायें खण्ड है। शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड धर्म रहित हैं, और धर्म कर्म से बहिर्भूत तथा खोटे कुलोन्न म्लेच्छों से भरे हैं ||१४२-१४४॥ [ २१५ अब पृथक् पृथक् तोन खण्डों का, छह खण्डों का और विजयार्ध के समीप रक्तारक्कोवा का विस्तार कहते हैं : :-→ नीलाचलसमीपे त्रिखण्डानां विस्तरः पृथक् । योजनानां त्रयस्त्रिवग्रसप्तशतानि च ।। १४५ । । क्रोकस्य षडंशेनोन द्विकोशयुतान्यपि । षट्खण्डानां तथायामोऽष्टौ सहस्राणि द्वे शते ॥१४६॥ एकसप्ततिसंयुक्ते योजनानां पृथक् पृथक् । एकोनविंश भागानां भागको योजनस्य च ॥ १४७॥ मूले रजतशैलस्य विस्तारः सरितो द्वयोः । योजनानि चतुस्त्रिशत् सार्धक्रोशयुतान्यपि ॥ १४८ ॥ विजयार्धसमीपे हि त्रिखण्डानां सुविस्तृतिः । योजनानां द्विसप्ताधिकानि सप्तशतानि च ॥ १४६ ॥ तथा पञ्चसहस्राणि धनुषां षट्शतानि च । षट्षष्टिरेव हस्तौ द्वावंगुलान्यपि षोडश ॥ १५० ॥ अर्थ:- नीलकुलाल के समीप में कच्छ देश के लोन खण्डों का पृथक्-पृथक् विस्तार सात सौ तेतीस योजन छह भागों से होन दो कोस ( ७३३३३ योजन ) प्रमाण है, तथा छह खण्डों का पृथक् पृथक् श्रायाम आठ हजार दो सौ इकहत्तर योजन और एक कला ( ८२७१११ योजन ) प्रमाण है । विजया पति के मूल में रक्ता रक्तोदा नदियों में से प्रत्येक का विस्तार चौतीस योजन श्रीर डेढ़ कोस से कुछ अधिक है । अर्थात् ३४३ योजन प्रमाण है ।। १४५ - १४८ ।। विजपा पति के समीप में तीनों
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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