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________________ एकादशोऽधिकारः मङ्गलाचरण :-- श्रीमतस्त्रिजगन्नाथान स्वर्मक्तिश्रीकरानसतास् । वन्दे धर्माधिपान पञ्चपरमेष्ठिन जत्तमात ।।१!! अर्थः—जो तीन जगत के नाथ हैं, सज्जन पुरुषों को स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करने वाले हैं तथा धर्म के अधिनायक हैं, ऐसे परमोत्कृष्ट पंचपरमेष्ठियों को मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अब वक्ष्यमारण विषय की प्रतिज्ञा करते हैं :---- अथ यैः पूरितो लोकः क्वचित्मचित्त्रसाङ्गिभिः । सर्वत्र स्थाबरैर्जीव नामेवश्च भूरिभिः ॥२॥ प्रायुः कायाक्षसंस्थानजातिबेदकुलादिभिः ।। तांस्त्रसान् स्थावरान् सर्वान् वक्ष्ये सतां दयाप्ततये ॥३॥ अर्थः—यह लोक कहीं कहीं अस जीवों से भरा हुआ है, किन्तु स्थावर जीवों से तो सर्वत्र भरा हुआ है, अतः सज्जन पुरुष दया पालन कर सकें. इसलिए मैं सर्व त्रस और स्थावर जीवों के नाना प्रकार के भेद-प्रभेद, आयु, काय, इन्द्रियाँ, संस्थान, जाति, वेद और कुल आदि का विवेचन करूगा ।।२-३|| अब जीव के भेद और सिद्ध जीव का स्वरूप कहते हैं :-- सिद्ध संसारिभेदाभ्यां स्युद्विधा जीवराशयः । सिद्धामेदादिनिष्क्रान्ता अनन्ता ज्ञानमूर्तयः ।।४।। अर्थ:-सम्पूर्ण जीव राशि सिद्ध और संसारी के भेद से दो प्रकार की है, जिसमें सिद्ध जीव भेद-प्रभेदों से रहित और अनन्त ज्ञान मूर्ति स्वरूप हैं ॥४॥ अब संसारो जोय के भेद कर स्थावर जीवों के प्रकार बतलाते हैं :-- त्रसस्थावर भेवाभ्यां द्विधा संसारिणोऽङ्गिनः । पृथिव्याविप्रकारेश्व पञ्चधा स्थावरा मताः ॥५॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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