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एकादशोऽधिकार
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अर्थः:- स और स्थावर के भेद से संसारी जीव दो प्रकार के हैं, उनमें से स्थावर जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक के भेद से पांच प्रकार के हैं ॥१५॥
प्र स और स्थावर जीवों की पृथक् पृथक् संख्या कहते हैं।
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पृष्ठयप्तेजोऽग्निमरुन्नित्येतर कायमयात्मनाम् । सप्तसतंय लक्षारिण प्रत्येकं सन्ति जातयः ||६|| जातयो दशलक्षाणि वनस्पतिशरीरिणाम् । प्रत्येकं द्विद्विलक्षारिण द्वित्रितुर्येन्द्रियात्मनाम् ॥७॥ तिर्यग्नारदेवानां प्रत्येकं स्युश्च जातयः । चतुर्लक्षाणि लक्षाणि चतुर्दशनृजातयः ||८|| इत्थं चतुरशीतिश्च लक्षाणि जीवजातयः । प्रधुना विस्तरेषां काञ्चिज्जाति ब्रुवे पृथक् ॥६॥
अर्थ :- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, श्रमिकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद और इतरनिगोद इन छह प्रकार के जीवों में से प्रत्येक की सात-सात लाख जातियाँ ( योनियाँ ) होतीं हैं । वनस्पति कायिक जीवों की दश लाख, द्वीन्द्रिय जीवों को दो लाख, त्रेन्द्रिय की दो लाख चतुरिन्द्रिय की दो लाख, पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की चार लाख, नारकियों की चार लाख, देवों की चार लाख और मनुष्यों की चौदह लाख जातियाँ होती हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण संसारी जीवों की कुल जातियाँ (७ ला० + ७ ला० + ७ ला०+७ला० + ७ ला० + ७ ला०+१० ला० + ६ ला० + ४ ला०+४ ला०+४ ला० + १४ ला०)=८४००००० अर्थात् चौरासी लाख जातियाँ ( योनियाँ ) होती हैं । अब इन जातियों में से कुछ जातियों का पृथक् पृथक् विस्तार पूर्वक कथन करते हैं ।।६-६ ।।
अब पृथ्वी के चार भेद और उनके लक्षण कहते हैं :-- पृथिवी पृथिवीकायः पृथिवीकायिकस्तथा । पृथिवीजीव इति ख्याता पृथ्वीभेदाश्चतुविधाः ॥१०॥ मार्गपदिता धूलिः पृथिवी प्रोच्यते बुधैः । निर्जीव इष्टिकादिश्च पृथिवीकायो मतः श्रुते ॥११॥ सजीवा पृथिवी सर्वा पृथिवोकायिको भवेत् । विग्रहाध्वानमापन्नोऽङ्गो पृथ्वीजीव उच्यते ॥ १२ ॥