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________________ ३२२ ] सिद्धान्तसार दीपक योजन मंणिसौधोच्च प्राकारगोपुराङ्कितम् । द्वाराणामूर्ध्वभागं च गत्वा तिष्ठति शाश्वतम् ॥ १४॥ ते स्वकीये स्वकीयेऽत्र पुरे तस्मिन् मनोहरे । स्वदेवपराया वसन्ति व्यन्तराधिपाः ।। १५ ।। श्रर्थः -- चारों गोपुर द्वारों के ऊपर ( गगन तल में ) जाकर इन विजय आदि चारों व्यन्तराघिनायकों के अत्यन्त रमणीक और शाश्वत नगर हैं। जिनका आयाम और विस्तार पृथक-पृथक बारह् हजार योजन प्रमाण है । 'नगर मणियों के ऊँचे ऊँचे महलों, प्राकारों और गोपुरों यादि से संयुक्त हैं । व्यन्तर देवों के स्वामी ये विजय आदि देव अपने अपने मनोहर नगरों में अपनी अपनी परिवार देवियों के साथ निवास करते हैं ।। १३ - १५॥ अब चारों द्वारों का पारस्परिक अन्तर और प्राकार के बाह्याभ्यन्तर भाग में स्थित वनों श्रादि का निरूपण करते हैं। :--- प्राकारपरिषेकचतुर्थांशं तदेव हि । द्वारव्यासोनितं तेषां द्वाराणामन्तरं भवेत् ॥१६॥ प्राकाराभ्यन्तरे भागे कोशद्वय सुविस्तरम् । नानापादपसंकीर्णं वनमस्ति मनोहरम् ॥१७॥ वेदिका स्याद्वनस्यान्ते गोपुरादिविभूषिता । क्रोशहयोशतादिव्या क्रोशतुर्याशविस्तृता ॥ १८ ॥ इत्यादिवर्णनोपेतः प्राकारोऽस्ति पृथक् पृथक् । प्रख्यद्वीपवानां पर्यन्ते वलयाकृतिः ॥१६॥ अर्थ -द्वार के व्यास से होन कोट की परिधि के चतुर्मास का जो प्रमाण प्राप्त होता है, वही उन द्वारों के अन्तर का प्रमाण है । अर्थात् कोट ( जम्बूद्वीप ) की परिधि का प्रमाण ३१६२२८ योजन है, और चारों द्वारों का व्यास १६ योजन है. इसे परिधि के प्रभार में में घटा देने पर (३१६२२८१६) ३१६२१२ योजन अवशेष रहते हैं। मुख्य द्वार चार हैं. ग्रतः अवशेष को चार से भाजित करने पर (११५२. *) =७६०५३ योजन प्राप्त हुये। यही एक द्वार से दूसरे द्वार के अन्तर का प्रमार है ।।१६।। प्राकार के भीतर की ओर ( पृथ्वी के ऊपर ) दो कोश विस्तार वाला तथा अनेक प्रकार के वृक्षों से व्याप्त महामनोहर वन है। उस वन के अन्त में गोपुर आदि द्वारों से विभूषित वेदिका है, जो दो को ऊँची और एक कोश का चतुर्थात् पात्र (2) कोश विस्तार वाली है ।।१७-१८ ।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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