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________________ सप्तमोऽधिकारः [ २२१ वरतनु नाम को ध्यन्तराधिप को और सीता के तट पर स्थित प्रभास द्वीप के स्वामी प्रभास देव को अपने आधीन करके उनके बहुत से वस्त्राभरण और रत्न मादि क्रीड़ा मात्र में ग्रहण कर लेता है ॥१७८-१७६। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में निवास करने वाले देवों एवं राजाओं को जीत कर यह चक्री उत्तर दिशा गत राजाओं को जीतने की इच्छा से उत्तर में प्राता है ।।१८०1। अब उत्तर दिग्विजय में विजयाध की गुफा से निस्तीर्ण होने का विधान बतलाते हैं:-- क्रमेण विजयार्धाद्रि समीर घालावृतः । रूप्याद्रि म्लेच्छखण्डादि साधनाय चिरं वसेत् ॥१८॥ चक्रयादेशेन सेनानीरश्वरत्नं खगामिनम् । पारुह्याभ्यस्य रूप्याद्र गुहाद्वारं सुदुर्गमम् ॥१८२।। तमिश्राख्यं स्फुरहण्डरत्नेन घातयेत्तराम । तत् क्षरणं स खमुत्पत्य म्लेच्छखण्डं व्रजेन्सुधीः ।।१३।। दण्डघातेन तद् द्वारकपाटोघाटनं भवेत् । तन्मध्यादुष्मदाहोघो निर्याति दुस्सहस्तवा ।।१४।। षण्मासर्यावदूष्माघः शान्तः स्याच्छीतला गुहा । तावत्सेनापतिम्लेंच्छखण्डमेकं च सापयेत् ॥१८॥ ततश्चकिमहासेना ह्यागत्याद्रिगुहामुखम् । प्रविश्य यत्नतो गच्छेन्नधा उभयपाश्र्वयोः ।।१८६।। क्रमेणास्य ग्रहामध्यभागे गत्वा नदीद्वयात । अग्रे गन्तुमशक्त तत्सत्यं चिन्तापरं वसत् ॥१७॥ गिरिद्विपार्षभित्तिस्थमूकुण्डाभ्यां विनिर्गते । द्वे चोन्मग्नजलासंज्ञिका निमग्नजलाये ॥१८॥ नद्यौ नियोजनायामे महोमिचयसंकुले। रक्तामध्ये प्रविष्टे प्रबहतस्तत्र दुर्गमे ॥१८६।। तदा चक्रधरादेशात स्थपत्याख्यो नृरत्नथाक् । दिव्यशक्त्यानयो धोः सेतुबन्ध प्रबन्धयेत् ॥१०॥ सेनोतीर्य शनर्नयौ पुण्येन सैन्य मूजितम् । गुहाया उत्तरद्वारेण निर्गच्छति शर्मणा ।।१६१॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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