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________________ १०२ ] सिद्धान्तसार दीपक पद्मवेदिका एवं देवों के प्रासादों का वर्णन करते हैं : :― पर्वतोपरि सर्वत्र विज्ञेया पद्मवेदिका । नानारत्नमया दिव्या चतुर्गापुर शोभिता ||६७॥ सप्ताष्टदशभूम्याद्यनेक भूमण्डितः । नानारत्नमर्यदिव्यैः सहस्रस्तम्भ शोभितः ||६६ ॥ चतुरस्राद्यनेकाकार संस्थानंमनोहरैः । प्रासादं में वितान्पुच्चैजिन सिद्धालयोजितैः ॥ ६६ ॥ वनोपवनवापीभिः प्राकारगोपुराविभिः । अलङ्कृतानि देवानां पुराणि सन्त्यनेकशः ॥७०॥ गिरिकूटेषु सर्वेषु तथाद्रि शिखरेषु च । शैलपार्श्व बनेपूच्चे भसमानानि सर्वदा ॥७१॥ श्रर्थः-पर्वतों के ऊपर अनेक प्रकार के रत्नमय, दिव्य और चार गोपुर द्वारों से युक्त, पद्म वेदिकाएँ स्थित हैं ॥६७॥ श्लोक ७० में कहे गये के नगर नाना प्रकार के रत्नमय, दिव्य, हजार खम्भों से सुशोभित, कोई सात, कोई आठ, कोई दश और कोई अनेक भूमियों अर्थात् तल या खण्डों से भूषित, उन्नत, मनोहर, जिन भवनों एवं सिद्धभवनों के समूह से युक्त, चतुष्कोण और कोई अनेक आकारों से परिगत ऐसे अनुपम प्रासादों अर्थात् भवनवासी देवों के भवनों से अत्यन्त शोभायमान हैं ।। ६५-६६।। सम्पूर्ण पर्वतों के कूटों पर पर्वत शिखरों पर तथा पर्वतों के पार्श्वभागों में स्थित वनों में भी देवों के वनों, उपवनों, वापियों, प्राकारों (कोट) एवं गोपुर द्वारों से अलंकृत प्रत्यन्त प्रकाशमान अनेक नगर हैं ।। ७०-७१ ।। अब कूटों का पारस्परिक अन्तर कहते हैं। कूटव्यासोनितं वैध्यं निजाद्र: कूटसंख्यया । विभक्तमन्तरं ज्ञेय कूटानां श्रीजिनागमे ॥७२॥ अर्थ :- अपनी अपनी लम्बाई में से कूटों के व्यासों को घटाकर शेष को कूट संख्या से विभाजित करने पर कूटों का अन्तर प्राप्त होता है, ऐसा जिनागम में कहा गया है ॥७२॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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