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________________ ५२८ ] सिद्धान्तसार दीपक प्रब सौधर्मादि इन्द्रों के नगरों के विस्तार का कथन करते हैं:-- सौधर्मादि चतुःस्वर्ग चतुयुग्मेष्वतोऽग्रतः । शेषेषु चतुरस्त्राणां पुराणां वम विस्तरम् ।।१२०॥ प्रशीतिश्चतुरग्रा स्यात्सहस्राणामथोनता । घस्वार्यो सहस्राणि योजनानामनुक्रमात् ॥१२१॥ द्वे सहने ततोऽप्यूने शेषेषु च शोनता। प्रमोषां सुखबोधाय च्याल्यानं पुनरुच्यते ॥१२२॥ अर्थ:-सौधर्मादि चार स्वर्गों में, इनसे आगे के चार युगलों में और इसके आगे शेष मानतादि स्वर्गों में स्थित इन्द्रों के समचरन नगरों का विस्तार : हूँ ।।१२०॥ सोधर्मादि कल्पों में नगरों का विस्तार क्रमश: ८४ हजार योजन, बार हीन अर्थात् ८० हजार योजन, पाठ हजार योजन हीन अर्थात् ७२ हजार योजन, दो हजार होन अर्थात् ७० हजार योजन, शेष चार स्वर्गों में दश-दश हजार होन अर्थात् ६० हजार योजन, ५० हजार योजन, ४० हजार योजन और ३० हजार योजन है। शेष स्वर्गों में नगरों का विस्तार २०-२० हजार योजन प्रमाण है । सुगमता पूर्वक समझने के लिए अब इसी विषय का व्याख्यान पुनः किया जाता है ।।१२०-१२२।। सौधर्म नगराणां समचतुरस्राणां विष्कम्भः योजनानां चतुरशीति सहस्राणि । ऐशाने घाशीतिसहस्राणि । सनत्कुमारे द्वासप्ततिसहस्राणि । माहेन्द्रे सप्तति सहस्राणि । ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोः पुराणां विस्तारः योजनानां षष्टिसहस्राणि । लान्तवकापिष्टयोश्च पञ्चाशत्सहस्राणि । शुक्रमहाशुक्रयोश्चत्वारिंशत्सहस्राणि । शतारसहस्रारयोस्त्रिशसहस्राणि । आनतप्राणतारणाच्युत्तेषु समचतुरस्रपुराणां व्यास: विशति सहस्र योजनानि । अर्थः-सौधर्म स्वर्ग स्थित चतुरस्र नगरों का विष्कम्भ ८४ हजार योजन, ऐशान स्वर्ग में ८० हजार योजन, सनत्कुमार स्वग में ७२ हजार योजन और माहेन्द्र स्वर्ग में ७० हजार योजन है। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल में स्थित नगरों का विस्तार ६० हजार योजन, लान्तव-कापिष्ट युगल में ५० हजार योजन, शुक्र-महाशुक्र युगल में ४० हजार योजन और शतार-सहस्रार युगल में ३० हजार योजन है । प्रानत-प्राणत-प्रारण और अच्युत स्वर्गों के चतुरस्र नगरों का व्यास २०-२० हजार योजन है।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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