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________________ ३१८ ] सिद्वान्तसार दीपक काल के प्रारम्भ सदृश पञ्च मेरु सम्बन्धो हरि रम्यक क्षेत्रों की दश मध्यम भोगभूमियों में वृद्धि ह्रास गे रहित बतंना होतो है ।।२५६! इसी प्रकार सवापिंगा दे तुतीय काल के प्रारम्भ सदृश हैमबत् और हैरण्यवत् क्षेत्रगत दश जघन्य भोगभूमियों में शाश्वत वर्तना होती है ।।२६०॥ मानुषोत्तर पर्वत से बाहर और स्वयम्भूरमरग द्वीप के मध्य में अवस्थित नागेन्द्र पर्वत के भीतर भीतर तिर्यग्लोक सम्बंधी असंख्यात द्वीपों में जघन्य भोगभुमि का वर्तन होता है, अवपिरणी के तृतीय काल के प्रारम्भ में जघन्य भोगशूमि जन्य यहाँ जैसा वर्तन होता है, वैसा वहाँ शाश्वत होता है ।।३६१-३६२।। ___ नागेन्द्र पर्वत के बाह्य भाग से स्वयम्भूरमण समुद्र के अन्त पर्यन्त अर्थात अर्ध स्वयम्भूरमरण द्वीप में और स्वयम्भूरमण समुद्र में अवसपिणी के पञ्चम काल के प्रारम्भ सहश, हानि-वृद्धि रहित पंचम काल का ही नित्य वर्तन होता है ।।३६३।। चतुनिकाय देवों के स्वर्गादिक सभी स्थानों में सुव के सागर स्वरूप सुखमा सुखमा काल के सदृश ही नित्य वर्तन होता है, तथा सातों नरक भूमियों में नारको जीवों के नित्य ही समस्त असाता की खान स्वरूप दुःखमा दुःखमा काल के सदृश वर्तन होता है { स्वर्गों एवं नरकों में प्रत्यन्त सुखों एवं अत्यन्त दुःखों को विवक्षा से यह कथन किया गया है, प्रायु तथा उत्सेध आदि की विवक्षा से नहीं ।।३६४-३६५॥ अब प्राचार्य कालचक्र के परिभ्रमण से छूटने का उपाय बतलाते हैं :-- इत्येतत् कालचक्रं भ्रमणभरयतं तीर्थनाथः प्रणीतम् । षड्भेदं सौख्यदुःखास्पदमपि निखिलं भो ! भ्रमन्त्येव नित्यम् ।। संसारे दुःखपूर्ण विधिगणगलिताः प्राणिनश्चेति मत्वा । दक्षाः कालादिदूरं सुचरणसुतपोभिः शिवं साधयध्वम् ॥३६६।। अर्थ:-इस प्रकार भ्रमण के भार से युक्त, समस्त सुखों एवां दुःखों के स्थान स्वरूप यह छह भेद बाला कालचक्र भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया है। इस कारण कर्म समूह से प्रेरित जीव इस दुःख पूर्ण संसार में नित्य ही भ्रमण करना है, ऐसा जानकर भो चतुर भव्य जनो! आप सव उत्तम चारित्र और उत्तम तप के द्वारा काल चक्र के प्रभाव से रहित मोक्ष का साधन करो ।।३६६।। अधिकारान्त मङ्गलाचरण :-- एषां काले चतुर्थे वसुगुणवपुषो येऽभवन् सिद्धनाथाi, सार्धद्वीपद्वये ये सकलगुणमयास्त्यक्तदोषा जिनेन्द्राः । अन्तातोताः सुराा जगति हितकराः सूरयः पाठकाश्चाचाराढ्याः साधवस्तांस्तदसमगतये नौमि सर्वान जिनादीन् ॥३६७।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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