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________________ २६० ] सिद्धान्तसार दीपक जिनान्तराणि सर्वाणि पिण्डिलानि भवन्ति च । कीटोकोटब्धयः कालसंख्ययात्र जिनेशिनाम् ॥। १६८ ।। के बाद दोनों अर्थः- वृषभदेव भगवान् के मोक्ष करों के मध्य में जो काल व्यतीत होता है, वही तीर्थंकरों का अन्तरकाल कहलाता है ।। १५५ ।। प्रथम अन्तर पचास करोड़ सागर तीन वर्ष और साढ़े आठ माह प्रमाण था । इस ऋषभनाथ और अजितनाथ के प्रथम ग्रन्तर के मध्य में अजितनाथ भगवान् की श्रायु सम्मिलित हो जानना । इसी प्रकार अन्य अन्तरालों में अन्य तीर्थंकरों की आयु भी सम्मिलित है ।। १५६-१५७।। इसके बाद दूसरे यदि अन्तराल क्रमश: तीस लाख करोड़ सागर, दश लाख करोड़ सागर, नत्र लाख करोड़ सागर, ६० हजार करोड़ सागर, नव हजार करोड़ सागर, ६०० करोड़ सागर, ६० करोड़ सागर, 8 करोड़ सागर और ६६ लाख २६ हजार एक सौ सागरों से होन एक करोड़ ( ३३७३६०० ) सागर था । इस ग्यारहवें अन्तराल के बाद क्रमशः चौवन सागर तीस सागर, नौ सागर, चार सागर, पौन पल्य कम सीन सागर, अर्धपत्य, हजार करोड़ वर्ष कम चौथाई पल्य, हजार करोड़ वर्ष, चौबन लाख वर्ष, छह लाख वर्ष और पाँच लाख वर्ष प्रमाण जिनान्तर जानना चाहिए ।। १५६ - १६२।। इसके बाद तेरासी हजार सात सौ पचास वर्ष और अन्तिम अन्तर दो सौ पचास वर्षों में से तीन वर्ष, साढ़े आठ मास कम अर्थात् दो सौ चालीस वर्ष तीन मास और एक पक्ष प्रमाण था । इस प्रकार चौबीस तीर्थंकरों का यह पृथक्-पृथक् ग्रन्तरकाल जानना चाहिए ।।१६३ - १६४ ।। इस उपर्युक्त काल में त्रैलोक्य हित कर्ता, तीन लोक के स्वामी जिनेश्वर भगवान् द्रव्य कर्म, नोकर्म और भाव कर्मों का नाश कर मोक्ष गये ।। १६५ ।। जब चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढ़े याठ मास प्रवशेष थे तब वीर प्रभु ने मोक्ष प्राप्त किया था ॥ १६६॥ | चौबोस जिनेन्द्रों के सम्पूर्ण अन्तर कालों को एकत्रित करके उसमें पंचम और छटवें काल के ४२००० वर्ष और मिला देने पर एक कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण हो जाता है ।।१६७-१६८।। विशेष:-- पूर्व पूर्व तीर्थकर के अन्तर में उत्तर-उत्तर तोकर की आयु संयुक्त रहती है अतः सम्पूर्ण अन्तराल काल में ४२००० वर्ष जोड़ देने से एक कोटाकोटि सागरोपम हो जाता है । sarat पृथक् पृथग्बालावबोधाय जिनान्तराण्युच्यन्ते : वृषभे निर्वाणं गते सति जिनान्तरं सागरोपमानां साघष्टिमास त्रिवर्षाधिक पंचाशल्लक्ष कोटयः । श्रजिते च त्रिशल्लक्ष कोटयः । सम्भवे दशलक्ष कोटयः । अभिनंदने नवलक्ष कोटयः । सुमतौ नवतिसहस्र कोटयः पद्मप्रभे नवसहस्रकोटयः । सुपार्श्वे नवशतकोटयः । चन्द्रप्रभे नवतिकोटयः । पुष्पदन्ते नवकोटयः । शीतले षट्षष्टिलदापविशतिसहस्रवर्ष होन नवनवति सहस्र नवशतकोटयः । श्रेयसि जिनान्तरं सागराणां चतुःपंचाशत् । वासुपूज्ये त्रिशत्। विमले नव । अनन्ते चत्वारः । धर्मे पादोन पल्यहीन त्रिसागराः । शान्तो
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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