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________________ [२२६ सप्तमोऽधिकारः कालाह्वयो महाकालो नःसर्पः पाण्डुकाभिधः । पमाख्यो मारणवः पिङ्गलाभिस्यः शंखसंज्ञकः ॥२४०।। सर्वरत्न इमे सन्ति चक्रिणो निधयो नव । निधिः कालोऽस्य पुण्येन पुस्तकानि दवाति च ॥२४॥ सर्वलौकिकशब्दादि वार्तानामन्यहं तथा । मनोशानिद्रियार्थांश्च वीणावंशानकादिकान् ॥२४२॥ असिमस्याविषट्कर्मसाधनद्रव्यसम्पदः । महाकालनिधिदत्ते पुण्यात्पुण्यनिधेः प्रभो ॥२४३।। शरपासनालयादीनि नःसप्पो वितरेद्विभोः । पाण्डुकोऽखिल धान्यानि षड्रसांश्च मनोहरान् ।।२४४॥ पट्टकूलादि वस्त्राणि दत्ते पद्मो महान्ति च । रस्नाभरणविश्वानि दीप्तिशालीनि पिङ्गलः ।।२४५।। शस्त्राणि नीतिशास्त्राणि सूते कृत्स्नानि मारणवः । शंखः प्रदक्षिणावर्तः सुवर्णानि महान्ति च ॥२४६॥ सर्वरतनिधिदद्याद्विश्वरत्नानि चक्रिणः । सर्वेऽमी शकटाकारा निधयोऽभुतपुण्यजाः ॥२४७।। चतुरक्षावाल्या योजनाष्टसमुन्नताः । नवयोजनविस्ताराः प्रत्येक रक्षिताः सुरैः ॥२४। सहस्रसंख्यदिशयोजनायताः शुभाः । ज्ञेयाः पुण्यनिधेस्तस्य नित्यं स्वेहितवस्तुदाः ॥२४६।। अर्थ:-चक्रवर्ती के काल, महाकाल, नैसर्प, पाण्डु, पद्म, माणव, पिङ्गल, शङ्ख और सवरत्न ये नव निधियाँ होती हैं । चक्रवर्ती के पुरण्य से प्रेरित इन नौ निधियों में से काल नाम को प्रथम निधि तर्क, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार प्रादि के. लोक व्यवहार सम्बन्धी एवं व्यापार सम्बन्धी शास्त्रों को तथा इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों को एवं वीणा, बाँसुरी, पटह आदि वाद्यों को निरन्तर देती है। पुण्य को खान स्वरूप चक्री के शुभोदय से महाकाल निधि असि, मसि कृष्यादि षट् कर्मों के साधन भूत द्रव्यों को और अन्य सम्पदा को भी देती है। नःसर्प निधि चक्रवर्ती को शय्या, आसन और प्रासाद आदि देती है। पाण्डु निघि सम्पूर्ण धान्य एवं मनोहर पट्रसों को देती है। पद्म नाम को पञ्चम निधि रेशमी और सूती प्रादि सभी प्रकार के महान कात्र देती है। पिङ्गल निधि कान्तिमान समस्त प्रकार के
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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